religion,धर्म-कर्म और दर्शन -127

religion and philosophy- 127

🏵️केदारनाथ से पशुपतिनाथ🏵️

आत्मबोध_विमर्श – केदारनाथ_पशुपतिनाथ केदारनाथ ज्योतिर्लिंग में शिवलिंग नहीं है, केवल एक चपटी और मध्य भाग से उभरी हुई नुकीली शिला है, पृथ्वीतत्त्व है, जो मूलाधारचक्र का परिचायक है। नेपाल, काठमांडू के पशुपतिनाथ का इसके साथ ही प्राकट्य हुआ था, जहां शिवलिंग है, आकाश तत्त्व है। यह आकाश तत्त्व विशुद्धि चक्र, महर्लोक और सहस्रार का द्योतक है।

महाभारतकालीन कथा है –

भैंसे के रूप में शिव विचरण कर रहे थे केदार घाटी में। पांडव वहां पहुंचे।‌ भीम ने शिव को पहचानने के लिए एक एक भैंसे को अपने दोनों पैर फैला कर, जंघाओं के बीच से निकालना शुरू किया।* जब भैंसे रूपी शिव का नम्बर आया, तब शिव तत्क्षण वहीं भूमि में प्रवेश कर गए और उनका शिर नेपाल में निकला।

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कथा का मर्म है — ध्यान-योगी की चेतना की भूमि तत्त्व मूलाधार चक्र से आकाश तत्त्व, सहस्रार की यात्रा। यह तीन स्तर की यात्रा है। आकाश तत्त्व विशुद्धि चक्र, महर्लोक और सहस्रार में प्रकट होता है।* प्रथम स्तर — विशुद्धि चक्र काल‌ के अधीन है। यहां कालकूट विष प्रकट होता है।

विष यानि भौतिक विषयों में आसक्ति। विशुद्धि चक्र का रंग नीला और तनिक गुलाबी मिश्रित है। इसी आकाश तत्त्व से अन्य महाभूत, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी तत्त्व, प्रकट होते हैं, तन्मात्राओं के साथ, जिनसे सृष्टि की रचना होती है।- इसीलिए शिव की एक उपाधि है, नीलकंठ।

यहां ध्यान-योगी स्वयं ही नीलकंठ शिव स्वरूप हो जाता है, जब नीला आकाश किंचित हल्का गुलाबी रंग लिए उसके ध्यान में प्रकट होता है, जब उसकी चेतना मेरुदंड में कंठ तक पहुंचती है।* द्वितीय स्तर — मोक्ष के लिए कालकूट विष का पान कर, उसे कंठ में ही रख कर, योगी निष्काम भाव से, आगे की आध्यात्मिक यात्रा करता है, अर्थात् मुंड में प्रवेश करता है। सांसारिक विषयों से उपराम होना आवश्यक है विशुद्धि चक्र से चेतना के ऊर्ध्वारोहण के लिए।

– अहंकार का त्याग प्रथम आयाम है मुंड में चेतना के प्रवेश के‌ लिए। अहंकार से ही सृष्टि का बोध होता है।

– मौन धारण करना द्वितीय आयाम है, क्योंकि वैखरी वाणी से आत्म/ब्रह्मशक्ति शब्दों के रूप में निसृत होती है और चेतना सृष्टि में लय होती जाती है।

– द्रष्टा भाव धारण करना तृतीय आयाम है, अर्थात् सृष्टि के किसी भी भाव/अवयव से निरपेक्ष रहना। यह आकाश तत्त्व, अंतरिक्ष (अंत: + इक्षण) है।- किसी विशेषज्ञ आध्यात्मिक ध्यान-योगी गुरु के शक्तिपात, अनुग्रह, के बिना चेतना की यह ऊर्ध्व यात्रा संभव नहीं हो सकती है।

मुंड मैं ध्यान-योगी जीवभाव त्याग कर निर्गुण निराकार आत्मा का बोध करता है। यही मोक्ष है। * तृतीय स्तर- चेतना के तृतीय स्तर की यात्रा असंभव नहीं है, लेकिन अत्यधिक कठिन है। इस यात्रा में त्रिकूट पर्वत को पार करना होता है। त्रिकूट, अर्थात् त्रिगुणात्मिका प्रकृति। तीनों गुणों, सत्त्व रज तम, का समन्वय कर मूल प्रकृति का बोध ध्यान-योगी पुरुष करता है। –

यह मूल प्रकृति ध्यान-योगी की ब्रह्मनाड़ी में स्थित है, जिसके बोध से सहस्रार में प्रवेश संभव होता है। सहस्रार कपाल के ठीक नीचे के भाग में स्थित है। यहीं दशम द्वार, ब्रह्मरंध्र, भी है, जिससे ब्रह्मयोगी अपने प्राण को शरीर के बाहर निकालते हैं, पुनः शरीर में प्रवेश कराते हैं, अपनी इच्छानुसार। यह आकाश चिदाकाश है।- सहस्रार सहस्र दल पद्म के रूप में ख्यापित है। भगवत् पद प्राप्त योगी में प्रकट होता है। भगवान् शिव निष्काम तपस्वी हैं, वहीं भगवान् श्रीविष्णु निष्काम योगी हैं। शिव कर्म में आसक्ति नहीं रखते हैं, श्रीविष्णु कर्मफल में आसक्ति नहीं रखते हैं। यही भेद है, अन्यथा तत्त्वत: दोनों में अभेद ही है।

शिव/ब्रह्म स्वरूप ध्यान-योगी ही श्रीविष्णु पद पर आसीत् होता है जब अपनी नाभि/मणिपुर चक्र से सृष्टि का सृजन करता है, पालन पोषण करता है, भूलोक पर कर्म के विधान को रचता है। रुद्र रूप में संसार में संहार भी यही करता हैं, जिससे नवीन सृजन संभव हो सके।

केदारनाथ से पशुपतिनाथ की यात्रा, मूलाधार चक्र से सहस्रार की यात्रा, का अर्थ है, भैंसे के पशुत्व से परम् योगी शिव/श्रीविष्णु के रूप में पशुपतिनाथ होना, यथा –
पशुत्व है, 10 इन्द्रियों/मन के अधीन होना,
पशुपति है, मन/इन्द्रियों का स्वामी,
पशुपतिनाथ है शिव/श्रीविष्णु, स्वामियों के स्वामी !!- वायु पुत्र कौन्तेय भीमसेन प्रथम स्तर तक ही शिव का बोध कर सके थे। वायु पुत्र आंजनेय महाबली हनुमान द्वितीय स्तर तक पहुंच कर आत्मबोध कर सके थे, चिरंजीवी हुए। वसिष्ठ और विश्वामित्र तृतीय स्तर पर ब्रह्मबोध कर ब्रह्मर्षि पद पर आसीत् हुए थे।

*डॉ रमेश खन्ना*
*वरिष्ठ पत्रकार
*हरीद्वार*
*(उत्तराखंड)*

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