religion,धर्म-कर्म और दर्शन -129
religion and philosophy- 129
🌼अघोर संप्रदाय, नाथ संप्रदाय क्या है?🌼
नागा साधु हिन्दू धर्मावलम्बी साधु हैं जो कि नग्न रहने तथा युद्ध कला में माहिर होने के लिये प्रसिद्ध हैं। ये विभिन्न अखाड़ों में रहते हैं जिनकी परम्परा जगद्गुरु आदिशंकराचार्य द्वारा की गयी थी।
इनके आश्रम हरिद्वार और दूसरे तीर्थों के दूरदराज इलाकों में हैं जहां ये आम जनजीवन से दूर कठोर अनुशासन में रहते हैं। इनके गुस्से के बारे में प्रचलित किस्से कहानियां भी भीड़ को इनसे दूर रखती हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि यह शायद ही किसी को नुकसान पहुंचाते हों। हां, लेकिन अगर बिना कारण अगर कोई इन्हें उकसाए या तंग करे तो इनका क्रोध भयानक हो उठता है। कहा जाता है कि भले ही दुनिया अपना रूप बदलती रहे लेकिन शिव और अग्नि के ये भक्त इसी स्वरूप में रहेंगे।
नागा साधु तीन प्रकार के योग करते हैं जो उनके लिए ठंड से निपटने में मददगार साबित होते हैं। वे अपने विचार और खानपान, दोनों में ही संयम रखते हैं। नागा साधु एक सैन्य पंथ है और वे एक सैन्य रेजीमेंट की तरह बंटे हैं।
त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम से वे अपने सैन्य दर्जे को दर्शाते हैं।
ये साधु प्रायः कुम्भ में दिखायी देते हैं। नागा साधुओं को लेकर कुंभ मेले में बड़ी जिज्ञासा और कौतुहल रहता है, खासकर विदेशी पर्यटकों में। कोई कपड़ा ना पहनने के कारण शिव भक्त नागा साधु दिगंबर भी कहलाते हैं, अर्थात आकाश ही जिनका वस्त्र हो। कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर धूनी की राख लपेटे ये साधु कुम्भ मेले में सिर्फ शाही स्नान के समय ही खुलकर श्रद्धालुओं के सामने आते हैं। आमतौर पर मीडिया से ये दूरी ही बनाए रहते हैं।
अधिसंख्य नागा साधु पुरुष ही होते हैं, कुछ महिलायें भी नागा साधु हैं पर वे सार्वजनिक रूप से सामान्यतः नग्न नहीं रहती अपितु एक गेरुवा वस्त्र लपेटे रहती हैं।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लम्बी होती है। नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूँ ही रहते हैं। कोई भी अखाड़ा अच्छी तरह जाँच-पड़ताल कर योग्य व्यक्ति को ही प्रवेश देता है। पहले उसे लम्बे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में रहना होता है, फिर उसे महापुरुष तथा फिर अवधूत बनाया जाता है। अन्तिम प्रक्रिया महाकुम्भ के दौरान होती है जिसमें उसका स्वयं का पिण्डदान तथा दण्डी संस्कार आदि शामिल होता है।
अघोर पंथ, अघोर मत या अघोरियों का संप्रदाय, हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है। इसका पालन करने वालों को ‘अघोरी’ कहते हैं। इसके प्रवर्त्तक स्वयं अघोरनाथ शिव माने जाते हैं
जो लोग अपने को ‘अघोरी’ वा ‘औगढ़’ बतलाकर इस पंथ से अपना संबंध जोड़ते हैं उनमें अधिकतर शवसाधना करना, मुर्दे का मांस खाना, उसकी खोपड़ी में मदिरा पान करना तथा घिनौनी वस्तुओं का व्यवहार करना भी दीख पड़ता है जो कदाचित् कापालिकों का प्रभाव हो।
इनके मदिरा आदि सेवन का संबंध गुरु दत्तात्रेय के साथ भी जोड़ा जाता हैलश के साथ उत्पन्न होना भी कहा गया है।
अघोरी कुछ बातों में उन बेकनफटे जोगी औघड़ों से भी मिलते-जुलते हैं जो नाथपंथ के प्रारंभिक साधकों में गिने जाते हैं और जिनका अघोर पंथ के साथ कोई भी संबंध नहीं है। इनमें निर्वाणी और गृहस्थ दोनों ही होते हैं और इनकी वेशभूषा में भी सादे अथवा रंगीन कपड़े होने का कोई कड़ा नियम नहीं है।
अघोरियों के सिर पर जटा, गले में स्फटिक की माला तथा कमर में घाँघरा और हाथ में त्रिशूल रहता है जिससे दर्शकों को भय लगता है।
अघोर पन्थ की ‘घुरे’ नाम की शाखा के प्रचार क्षेत्र का पता नहीं चलता किंतु सरभंगी’ शाखा का अस्तित्व विशेषकर चंपारन जिले में दीखता है
जहाँ टेकमनराम, भीखनराम, सदानंद बाबा एवं बालखंड बाबा जैसे अनेक आचार्य हो चुके हैं।
इनमें से कई की रचनाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और उनसे इस शाखा की विचारधारा पर भी बहुत प्रकाश पड़ता है।
अघोरी साधक केवल उज्जैन में ही नहीं, वाराणसी, प्रयाग, बंगाल, यहाँ तक की दिल्ली और मुंबई में भी होते है। इनके साधना पथ अघोर होने से इन्हें अघोरी कहा गया, इनके लिए कुछ भी घोर नहीं है, अर्थात घृणित नहीं है। मृत्यु और श्मशान भी नहीं।
क्या यह आम लोगो से मिलते है?
इन्हें क्या जरूरत है आम लोगो से मिलने की। शायद आम लोगो को जरूरत हो इनसे मिलने की, क्योंकि उन्हें अपनी समस्याओं का समाधान चाहिए, उन्हें चमत्कार चाहिए। ऐसे में अगर अघोरी लोग आम आदमियों से मिलने लगे, तो आम आदमी उन्हें साधना ही नहीं करने देंगे। तो अघोरी साधक आम लोगो से बच कर ही चलते है।
हाँ, अघोरी साधक स्वयं आम जीवन व्यतीत करते है। उनका एक निजी जीवन भी होता है। वह दिए गए चित्र सामान बिलकुल नहीं होते। ऊपर चित्रों में दिखाए साधु अघोरी नहीं है। यह आम साधू है जो भस्म लगाए आपको वाराणसी में घुमते मिलेंगे। कोई अघोरी साधक तो नौकरी पेशे वाला या व्यवसायी भी हो सकता है। हो सकता है जीन्स टीशर्ट पहने आपके बाजू से निकल जाए और आप उसे पहचाने भी नहीं। ऐसे में वह आम लोगो से जरूर मिलते और बात करते है। पर स्वयं एक आम इंसान की तरह, अघोरी की तरह नहीं।
नागा साधु और अघोरी बाबा दोनों ही आध्यात्मिक आचार्यों के विभिन्न पंथों के प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन उनके अंतर निम्नलिखित हो सकते हैं:
1. धार्मिक संप्रदाय: नागा साधु एक सम्प्रदायिक आचार्य होते हैं जो संप्रदाय के सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक प्रतीक होते हैं। वे अपने संप्रदाय की शिक्षाओं और तत्त्वों का पालन करते हैं। अघोरी बाबा तांत्रिक और आद्यांतिक विद्याओं पर ध्यान केंद्रित करने वाले होते हैं।
2. आचरण और विशेषताएं: नागा साधु अपने शरीर पर नग्न रहते हैं और वृद्धि के लिए अपने बालों को नहीं काटते हैं। वे अपने सांस्कृतिक और आचारिक परंपराओं के संरक्षण और प्रचार करते हैं। अघोरी बाबा अपने विशेष आचरणों और साधनाओं के लिए प्रसिद्ध होते हैं, जैसे कि शव साधना, ध्यान, तांत्रिक अभ्यास और वैदिक ज्ञान के प्रयोग।
3. साधना की दिशा: नागा साधु अपने संप्रदाय की साधना और पूजा के लिए उन्नत और शांतिपूर्ण स्थानों पर जाते हैं, जहां वे ध्यान, मन्त्र जाप और आध्यात्मिक अभ्यास करते हैं। अघोरी बाबा अपने आध्यात्मिक और तांत्रिक साधनाओं को अक्षुण्ण स्थानों पर करते हैं, जैसे कि श्मशान, मसान, या अन्य तांत्रिक स्थल।
यहां उल्लिखित अंतर सामान्यतः मान्यताओं, प्रथाओं और धार्मिक अनुयायों के बीच विभाजन के कारण होते हैं। हालांकि, यह उपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि हर एक नागा साधु और अघोरी बाबा अपने अपने उन्नत आध्यात्मिक पथ पर चलते हैं और वे अपनी आचार्य परंपरा, विश्वास और आदर्शों के अनुसार अपने आध्यात्मिक साधनाओं का पालन करते हैं।
अघोरी कापालिक
जो अघोरी सर पर कपाल खोपड़ी रखकर माला के गुरिये खिसकाते हुए मंत्र बुदबुदाते हुए साधना करते हैं, उसे कापालिक अघोरी कहते हैं
‘औघड़’ या ‘अवधूत’ शब्द जो आज समाज में प्रचलन में है वह वैदिक युग में अपने संस्कृत रूप में प्रचलित था। औघड़ शब्द का संस्कृत रूप अघोर ही है।सामान्यत: ‘अघोर’ शब्द का अर्थ है- जो घोर या भयानक न हो अर्थात् ‘सौम्य’ या ‘प्रियदर्शन’ होता है।वर्तमान समय में औघड़ शब्द शिव का ही अर्थ रखता है।इससे यह सिद्ध होता है कि शिव ही अघोर है,जिसे आजकल ‘औघड़’ कहते है।इस प्रकार ‘औघड़’ तथा ‘अघोर’ से बने ‘अघोरी’ शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची समझे जाते है।
जहां तक कापालिक के अर्थ की बात है तो कापालिक उसे कहते है जिसने काल का भक्षण किया हो, जिसका आकाश के कपाल में आलय हो,जो सभी ब्रह्मांड का निर्माता
नागा साधु हिन्दू धर्मावलम्बी साधु हैं जो कि नग्न रहने तथा युद्ध कला में माहिर होने के लिये प्रसिद्ध हैं। ये विभिन्न अखाड़ों में रहते हैं जिनकी परम्परा जगद्गुरु आदिशंकराचार्य द्वारा की गयी थी।
इनके आश्रम हरिद्वार और दूसरे तीर्थों के दूरदराज इलाकों में हैं जहां ये आम जनजीवन से दूर कठोर अनुशासन में रहते हैं। इनके गुस्से के बारे में प्रचलित किस्से कहानियां भी भीड़ को इनसे दूर रखती हैं। लेकिन वास्तविकता यह है कि यह शायद ही किसी को नुकसान पहुंचाते हों। हां, लेकिन अगर बिना कारण अगर कोई इन्हें उकसाए या तंग करे तो इनका क्रोध भयानक हो उठता है। कहा जाता है कि भले ही दुनिया अपना रूप बदलती रहे लेकिन शिव और अग्नि के ये भक्त इसी स्वरूप में रहेंगे।
नागा साधु तीन प्रकार के योग करते हैं जो उनके लिए ठंड से निपटने में मददगार साबित होते हैं। वे अपने विचार और खानपान, दोनों में ही संयम रखते हैं। नागा साधु एक सैन्य पंथ है और वे एक सैन्य रेजीमेंट की तरह बंटे हैं। त्रिशूल, तलवार, शंख और चिलम से वे अपने सैन्य दर्जे को दर्शाते हैं।
ये साधु प्रायः कुम्भ में दिखायी देते हैं। नागा साधुओं को लेकर कुंभ मेले में बड़ी जिज्ञासा और कौतुहल रहता है, खासकर विदेशी पर्यटकों में। कोई कपड़ा ना पहनने के कारण शिव भक्त नागा साधु दिगंबर भी कहलाते हैं, अर्थात आकाश ही जिनका वस्त्र हो। कपड़ों के नाम पर पूरे शरीर पर धूनी की राख लपेटे ये साधु कुम्भ मेले में सिर्फ शाही स्नान के समय ही खुलकर श्रद्धालुओं के सामने आते हैं। आमतौर पर मीडिया से ये दूरी ही बनाए रहते हैं।
अधिसंख्य नागा साधु पुरुष ही होते हैं, कुछ महिलायें भी नागा साधु हैं पर वे सार्वजनिक रूप से सामान्यतः नग्न नहीं रहती अपितु एक गेरुवा वस्त्र लपेटे रहती हैं।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया कठिन तथा लम्बी होती है। नागा साधुओं के पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में लगभग छह साल लगते हैं। इस दौरान नए सदस्य एक लंगोट के अलावा कुछ नहीं पहनते। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट भी त्याग देते हैं और जीवन भर यूँ ही रहते हैं। कोई भी अखाड़ा अच्छी तरह जाँच-पड़ताल कर योग्य व्यक्ति को ही प्रवेश देता है। पहले उसे लम्बे समय तक ब्रह्मचारी के रूप में रहना होता है, फिर उसे महापुरुष तथा फिर अवधूत बनाया जाता है। अन्तिम प्रक्रिया महाकुम्भ के दौरान होती है जिसमें उसका स्वयं का पिण्डदान तथा दण्डी संस्कार आदि शामिल होता है। विज्ञापन:- आजार्य श्री सूव्रत रचित शैव सिद्धान्त रहस्यामृत किताव प्रकाशित होने वाला है। आप सव इस किताव के पूर्ण लाभ उठाये |
अघोर पंथ, अघोर मत या अघोरियों का संप्रदाय, हिंदू धर्म का एक संप्रदाय है। इसका पालन करने वालों को ‘अघोरी’ कहते हैं। इसके प्रवर्त्तक स्वयं अघोरनाथ शिव माने जाते हैं
जो लोग अपने को ‘अघोरी’ वा ‘औगढ़’ बतलाकर इस पंथ से अपना संबंध जोड़ते हैं उनमें अधिकतर शवसाधना करना, मुर्दे का मांस खाना, उसकी खोपड़ी में मदिरा पान करना तथा घिनौनी वस्तुओं का व्यवहार करना भी दीख पड़ता है जो कदाचित् कापालिकों का प्रभाव हो। इनके मदिरा आदि सेवन का संबंध गुरु दत्तात्रेय के साथ भी जोड़ा जाता है जिनका मदकलश के साथ उत्पन्न होना भी कहा गया है। अघोरी कुछ बातों में उन बेकनफटे जोगी औघड़ों से भी मिलते-जुलते हैं जो नाथपंथ के प्रारंभिक साधकों में गिने जाते हैं और जिनका अघोर पंथ के साथ कोई भी संबंध नहीं है। इनमें निर्वाणी और गृहस्थ दोनों ही होते हैं और इनकी वेशभूषा में भी सादे अथवा रंगीन कपड़े होने का कोई कड़ा नियम नहीं है। अघोरियों के सिर पर जटा, गले में स्फटिक की माला तथा कमर में घाँघरा और हाथ में त्रिशूल रहता है जिससे दर्शकों को भय लगता है।
अघोर पन्थ की ‘घुरे’ नाम की शाखा के प्रचार क्षेत्र का पता नहीं चलता किंतु ‘सरभंगी’ शाखा का अस्तित्व विशेषकर चंपारन जिले में दीखता है जहाँ पर भिनकराम, टेकमनराम, भीखनराम, सदानंद बाबा एवं बालखंड बाबा जैसे अनेक आचार्य हो चुके हैं। इनमें से कई की रचनाएँ प्रचुर मात्रा में उपलब्ध हैं और उनसे इस शाखा की विचारधारा पर भी बहुत प्रकाश पड़ता है।
क्या उज्जैन में आज भी अघोरी सिद्ध साधक पाए जाते हैं? क्या वो आम जनता से मिलते हैं, उनसे बातचीत करते हैं?
अघोरी साधक केवल उज्जैन में ही नहीं, वाराणसी, प्रयाग, बंगाल, यहाँ तक की दिल्ली और मुंबई में भी होते है। इनके साधना पथ अघोर होने से इन्हें अघोरी कहा गया, इनके लिए कुछ भी घोर नहीं है, अर्थात घृणित नहीं है। मृत्यु और श्मशान भी नहीं।
क्या यह आम लोगो से मिलते है?
इन्हें क्या जरूरत है आम लोगो से मिलने की। शायद आम लोगो को जरूरत हो इनसे मिलने की, क्योंकि उन्हें अपनी समस्याओं का समाधान चाहिए, उन्हें चमत्कार चाहिए। ऐसे में अगर अघोरी लोग आम आदमियों से मिलने लगे, तो आम आदमी उन्हें साधना ही नहीं करने देंगे। तो अघोरी साधक आम लोगो से बच कर ही चलते है।
हाँ, अघोरी साधक स्वयं आम जीवन व्यतीत करते है। उनका एक निजी जीवन भी होता है। वह ऊपर दिए गए उत्तर के चित्र सामान बिलकुल नहीं होते। ऊपर चित्रों में दिखाए साधु अघोरी नहीं है। यह आम साधू है जो भस्म लगाए आपको वाराणसी में घुमते मिलेंगे। कोई अघोरी साधक तो नौकरी पेशे वाला या व्यवसायी भी हो सकता है। हो सकता है जीन्स टीशर्ट पहने आपके बाजू से निकल जाए और आप उसे पहचाने भी नहीं। ऐसे में वह आम लोगो से जरूर मिलते और बात करते है। पर स्वयं एक आम इंसान की तरह, अघोरी की तरह नहीं।
अघोरी नागा साधुओं या फिर तकनीकी दुनिया से कटे हुए आदिवासियों के पास कौन सा कम्पास होता है, वो कैसे दिशा का निर्धारण करते हैं?
सामाजिक ज्ञान से तकनीक विकसित हुई, न कि इसका उलट। तो असल में इन्ही आदिवासियों और आपके अनुसार तकनीकी पिछड़े हुए लोगों ने जरूरतों के अनुसार आविष्कार किये, जिसकी वजह से आपका जीवन आसान हुआ। केवल आसान ही नहीं हुआ, इस हद्द तक उस पर निर्भर हो गया की उसके बिना हम जीवन सोच नहीं सकते।
अब आपके प्रश्न का उत्तर। दिशा सीधे सीधे सूर्य और तारों से आप देख सकते है। सूर्योदय से पूर्व पश्चिम का ज्ञान, उसके उत्तरायण और दक्षिणायन से उत्तर दक्षिण का ज्ञान। आकाश में उदित नक्षत्रों से रात्रि में दिशाओं का ज्ञान आसानी से होता है। हाथों की दूरी, हथेलियों से उंगलियों से केवल दिशाएँ ही नहीं अंशात्मक रूप से भी दिशाओं को बांट सकते हैं, जो पहले नाविक किया करते थे।
ऐसा नहीं है कि यह सब कुछ छुपा हुआ अथवा चमत्कारिक ज्ञान है। आज भी विज्ञान और इतिहास दोनों की प्रारंभिक किताबें मानव सभ्यता के इन्ही अनुभवों और उससे उपजे उपकरणों पर होती है। पर कोई पढ़े तो।
नागा साधु और अघोरी बाबा में क्या अंतर होता है?
नागा साधु और अघोरी बाबा दोनों ही आध्यात्मिक आचार्यों के विभिन्न पंथों के प्रतिनिधित्व करते हैं, लेकिन उनके अंतर निम्नलिखित हो सकते हैं:
1. धार्मिक संप्रदाय: नागा साधु एक सम्प्रदायिक आचार्य होते हैं जो संप्रदाय के सांस्कृतिक, धार्मिक और आध्यात्मिक प्रतीक होते हैं। वे अपने संप्रदाय की शिक्षाओं और तत्त्वों का पालन करते हैं। अघोरी बाबा तांत्रिक और आद्यांतिक विद्याओं पर ध्यान केंद्रित करने वाले होते हैं।
2. आचरण और विशेषताएं: नागा साधु अपने शरीर पर नग्न रहते हैं और वृद्धि के लिए अपने बालों को नहीं काटते हैं। वे अपने सांस्कृतिक और आचारिक परंपराओं के संरक्षण और प्रचार करते हैं। अघोरी बाबा अपने विशेष आचरणों और साधनाओं के लिए प्रसिद्ध होते हैं, जैसे कि शव साधना, ध्यान, तांत्रिक अभ्यास और वैदिक ज्ञान के प्रयोग।
3. साधना की दिशा: नागा साधु अपने संप्रदाय की साधना और पूजा के लिए उन्नत और शांतिपूर्ण स्थानों पर जाते हैं, जहां वे ध्यान, मन्त्र जाप और आध्यात्मिक अभ्यास करते हैं। अघोरी बाबा अपने आध्यात्मिक और तांत्रिक साधनाओं को अक्षुण्ण स्थानों पर करते हैं, जैसे कि श्मशान, मसान, या अन्य तांत्रिक स्थल।
यहां उल्लिखित अंतर सामान्यतः मान्यताओं, प्रथाओं और धार्मिक अनुयायों के बीच विभाजन के कारण होते हैं। हालांकि, यह उपेक्षा नहीं करनी चाहिए कि हर एक नागा साधु और अघोरी बाबा अपने अपने उन्नत आध्यात्मिक पथ पर चलते हैं और वे अपनी आचार्य परंपरा, विश्वास और आदर्शों के अनुसार अपने आध्यात्मिक साधनाओं का पालन करते हैं।
अधिक जानकारी प्राप्त करने के लिए, “अमृतम पत्रिका” पढ़ें। यह पत्रिका हिंदी पुराणों, धार्मिक ग्रंथों, और आध्यात्मिक साहित्य से संबंधित गहन चर्चाओं, प्रेरक कथाओं, और आध्यात्मिक ज्ञान का एक मूल्यवान संग्रह है। इसमें आपको विश्वास के विभिन्न पहलुओं, साधनाओं, और आध्यात्मिक विचारों का विस्तृत अध्ययन करने का अवसर मिलेगा। “अमृतम पत्रिका” आपको हिंदी भाषा में आपके आध्यात्मिक और धार्मिक अभिरुचियों को पूरा करने में मदद करेगी।
कापालिक का अर्थ क्या होता है? अघोरी को कापालिक क्यों कहते हैं? क्या कापालिक का अर्थ जो अघोरी सर पर कपाल खोपड़ी रखकर माला के गुरिये खिसकाते हुए मंत्र बुदबुदाते हुए साधना करते हैं, उसे कापालिक अघोरी कहते हैं?
‘औघड़’ या ‘अवधूत’ शब्द जो आज समाज में प्रचलन में है वह वैदिक युग में अपने संस्कृत रूप में प्रचलित था। औघड़ शब्द का संस्कृत रूप अघोर ही है।सामान्यत: ‘अघोर’ शब्द का अर्थ है- जो घोर या भयानक न हो अर्थात् ‘सौम्य’ या ‘प्रियदर्शन’ होता है।वर्तमान समय में औघड़ शब्द शिव का ही अर्थ रखता है।इससे यह सिद्ध होता है कि शिव ही अघोर है,जिसे आजकल ‘औघड़’ कहते है।इस प्रकार ‘औघड़’ तथा ‘अघोर’ से बने ‘अघोरी’ शब्द एक दूसरे के पर्यायवाची समझे जाते है। जहां तक कापालिक के अर्थ की बात है तो कापालिक उसे कहते है जिसने काल का भक्षण किया हो, जिसका आकाश के कपाल में आलय हो,जो सभी ब्रह्मांड का निर्माता हो।
‘वामन पुराण’ में शैवों के चार संप्रदाय बताए गये हैं- शैव, पाशुपत, कालदमन तथा कापालिक।चीनी यात्री ह्वेनसांग ने सातवी शताब्दी में भारत की यात्रा की थी।उसने कापालिकों के संदर्भ में लिखा कि ‘ वे अस्थियों की माला मुकुट के रूप में धारण करते थे।’
आनन्द गिरि ने ‘शंकरविजय’ नामक ग्रंथ में कापालिक का वर्णन करते हुए लिखा है कि- ‘उनके शरीर में चिता की भस्म लगी रहती है,वह व्याघ्र चर्म पहनते है तथा बाये हाथ से कपाल धारण करते है,उनके दाहिने हाथ में एक घंटी रहती है जिसको वह बार-बार हिलाकर हे शम्भु! हे भैरव! हे कालीनाथ! आदि करते है।’ उन्होंने लिखा है कि प्राचीन समय में अघोरियों के मठ आबू पर्वत,बनारस,बोधगया, गिरनार तथा हिन्गलाज में थे।
भवभूति के ग्रंथ ‘मालती माधव’ के अंक पाँच में कापालिकों का बड़ा भव्य चित्रण हुआ है।तत्कालीन कापालिक संप्रदाय में भी वर्ण भेद नहीं था।उनके संप्रदाय में भी स्त्रियां सम्मिलित होती थी।उक्त विवरण में कापालिकों के जो लक्षण बताए गये है,वह अघोरियों से मिलते हैं।
पूर्व मध्ययुग में उज्जयिनी कापालिकों का एक मुख्य केंद्र था।दिग्विजय के दौरान आदि शंकराचार्य की भेट कापालिकों से हुई थी।ये कापालिक भैरव के साथ उनकी पत्नी चन्डिका की भी उपासना करते थे। बाणभट्ट के ‘हर्ष चरित’ में इसका उल्लेख मिलता है।
कापालिक शास्त्र के अनुसार- काली माला,काला वस्त्र तथा काला चंदन धारण कर महाश्मशान में ‘महाकाल हृदय’ नामक शक्तिशाली महामंत्र का कोटि जप किया जाना चाहिए।वे छ: मुद्रिकाओं- कंठिका,कुंडल, भस्म,रुचक,शिखामणि तथा यज्ञोपवीत के तत्वज्ञान में विश्वास करते थे।निर्वाण के लिए भगासन मुद्रा का भी प्रयोग करते थे
*डॉ रमेश खन्ना*
*वरिष्ठ पत्रकार*
*हरीद्वार (उत्तराखंड)*
🙏🙏🙏🙏🙏❣️❣️💕