religion,धर्म-कर्म और दर्शन -139
religion and philosophy- 139
🏵️कुण्डलिनी _का अघोर _सप्तम्_शक्तियां🏵️
पूजा के साथ ध्यान का क्या महत्व है यह साधक, लोग जानते ही है अतः ध्यान की विधि सम्मत प्रक्रिया अपनाकर ही पूजा करनी चाहिए ।
इसमे सप्तमी उल्लेख तो है पर उसका नामोल्लेख नही है ।डाकनी के आधार पर—- १, डाकिनी,२. राकिनी,३.लाकिनी,४. काकिनी,५.शालिनी,६. हाकिनी और ७. कुण्डलिनी एवं याकिनी मानी जा सकती है
सातवीं देवी को रूप मे परादेवी कि पूजा भी की जाती है इससे समस्त सिद्धिया कीं प्राप्ति होती है यह ध्रुव सत्य है ।
साधक प्रत्येक देवी की पृथक पृथक पूजा के अवसर पर इन्हीं रूपों के अनुसार चिन्तन करें। इन्हे क्रमशःइस प्रकार करे —
(१)डाकिनी(मूलाधार)—-इस देवी का मुख सर्प के समान है इसे सर्पवदना कहते है । यह वित्त से उत्पन्न है । अत इसे वित्त जा कहते है ।इसकी कान्ति प्रज्वलित अग्नि के समान चमकदार है। sयह कमण्डलु और कटार धारण करती है । वरदान देने के लिये सदा तत्पर है।
(२)राकिणी(स्वाधिष्ठान)— यह उलुकवदना देवी है । इसकी सदृश ता नील से है ।यह खडगं और खेटक धारण करती है यह सभी अलंकारों को धारण करने वाली सौन्दर्य की देवी है ।
(३) लाकिनी(मणिपुर)—–श्री समन्वित कपालमालावती पाश और अंकुश धारण करने वाली, पाटिल कि पाटलिमामयी आभा से विभूषिता सर्वालंकारशोभना लाकिनी श्रेष्ठ देवी हैo। डफ प्रत्याहार के अक्षरो के दल वाले कमल में निवास करती है ।
(४)काकिनी(अनाहत)——इसका मुख घोडी के समान होता है । इसकी कान्ति माणिक्य के समान है । यह तीन मुखों वाली त्रिमुखी देवी है। यह मुण्डमाला धारण करती है सिद्धिप्रदात्री सौन्दर्य की देवी का नाम काकिनी है ।
(५)शाकिनी(साकिनी–सदाशिवा)(विशुद्ध)–अंजन के समान काली, बिल्ली के समान मुख वाली, शोभना अर्थात आकर्षणमयी यह देवी कुलिश और दण्ड धारण करती है इसकी मुस्कान अत्यंत पावन और मधुर है ।
(६) हाकिनी(आज्ञाचक्र)— यह ऋक्ष के समान मुख वाली देवी काले गभुआरे बादलों की श्यामल आभा के समान सुन्दर है यह कपाल और शुल धारण करती है खेटकों से भी यह शोभायमान हैइसे सरभा और अभया भी कहते है ।
सप्तमी देवी का नाम इसमे भी नही दिया गया है इसलिए विलक्षण साधक कुण्डलिनी को जाग्रत कर प्रभाव से ही भावित होते है । यही मौन का कारण है अर्थात सप्तमी स्वयं कुलेश्वरी शिवा ही है
सूक्ष्म लोक में मनुष्य की विद्या, बुद्धि, विचार और अवधारणाएं पृथ्वी लोक की ही तरह होती हैं बल्कि पढने-लिखने सोचने-समझने की शक्ति और अधिक बढ़ जाती है। यदि वह पढना चाहे तो सूक्ष्मलोक में वह आसानी से पढ़-समझ सकता है बल्कि जो जिस योग्य है उसे वहां बहुत कुछ पढ़ाया-सिखाया जाता है। यही कारण है कि लोग जन्म से ही भिन्न-भिन्न संस्कार, भिन्न-भिन्न रुचियों को लेकर जन्म लेते हैं।
कोई जन्म लेने के कुछ समय बाद ही सन्यासी बनने लगता है तो कोई डकैत। कोई गणित में गति रखता है तो कोई साहित्य में। कोई कला में पारंगत होता है तो कोई वेदान्त में। यह सब यूँ ही नहीं होता। इसके पीछे सूक्ष्मलोक के शिक्षण और संस्कार होते हैं जो पूर्वजन्म के शिक्षण-संस्कार और अभिरुचियों को आधार बना कर गढ़े जाते हैं।
हम जो कुछ बोते हैं– वही काटते हैं और कर्म से किसी भी प्रकार से मुक्ति नहीं। हम पृथ्वी के किसी कोने में जा छिपें, कर्म हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा। जीवन ही कर्म है। जन्म कर्म का आरम्भ है और मृत्यु कर्म का अंत। जीवन में कर्म को रोकना असंभव है। जीने की प्रत्येक क्रिया कर्म है। श्वास भी लेना कर्म है। उठना, बैठना, सोचना, विचारना भी कर्म है। जीना कर्म की ही प्रक्रिया है। जो लोग यह सोचते हैं कि वे जीते-जी कर्म का त्याग कर दें तो वे केवल असंभव बातें सोच रहे हैं। यह संभव नहीं हो सकता है।
गृहस्थ एक प्रकार से कर्म करता है और सन्यासी दूसरे प्रकार से कर्म करता है। गृहस्थ आसक्त भाव से कर्म करता है और सन्यासी अनासक्त भाव से कर्म करता है। दोनों ही कर्म करते हैं। लेकिन दोनों के कर्मों में भेद है। आसक्त भाव से कर्म करने वाले को कर्मफल मिलता है जबकि अनासक्त भाव से कर्म करने वाले को कर्मफल नहीं मिलता है। उसको कर्मफल मिलने का एक मात्र कारण है –उसकी कर्मफल के प्रति आसक्ति।
हम जैसे जी रहे हैं, वैसे ही जीते रहें। वैसे ही करते रहें। कर्म को बदलने की आवश्यकता नहीं। आवश्यकता है केवल कर्ता को बदलने की। वास्तविक प्रश्न यह नहीं है कि हम क्या कर रहे और क्या नहीं। वास्तविक प्रश्न यह है कि भीतर हम क्या हैं? यदि भीतर हम गलत हैं तो हम जो भी करेंगे, वह गलत ही होगा, दोषपूर्ण होगा। यदि हम भीतर सही हैं तो हम जो भी करेंगे ,वह निर्दोष होगा, उसका फल भी सही होगा।
वास्तविक कर्म उसी समय शुरू होता है जिस दिन कर्म दूसरे के लिए होता है। अपने लिए ही जीना पर्याप्त नहीं है। जो केवल अपने लिए जीता है, उसका जीवन एक बोझ है। लेकिन जब व्यक्ति अपने लिए सब प्राप्त कर चुकता है, सब जान चुका होता है फिर भी जीता है, तो उसके लिए पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण समाप्त हो जाता है। वह बिना भार के, बिना बोझ के जीता है।
इस साधारण जीवन में वे ही क्षण आनंद के हैं जब हम थोड़ी देर के लिए दूसरे के लिए जीते हैं। माँ जब अपने बेटे के लिए जी लेती है तो आनंद से भर जाती है। पिता जब बेटे के लिए, मित्र जब मित्र के लिए जीता है तो वह आनंद में डूब जाता है। क्षणभर भी यदि हम दूसरे के लिए जी लेते हैं तो ही हमारे जीवन में आनंद-ही-आनंद रहता है।
*डॉ रमेश खन्ना*
*वरिष्ठ पत्रकार*
*हरीद्वार (उत्तराखंड)*