religion,धर्म-कर्म और दर्शन -146
religion and philosophy- 146
🏵️*करालं महाकाल कालं कृपालं*🏵️
गोस्वामी तुलसीदास कृत श्रीरामचरितमानस में स्वयं कागभुशुण्ड अपने अनेक जन्मों की कथा गरुड़ को सुनाते हैं। कागभुशुण्ड बताते हैं कि एक बार अयोध्या के गरीब परिवार में उनका जन्म हुआ। समय बीतने पर अकाल पड़ा और वे उज्जैन आ गए और एक शिवभक्त विप्र की कपटपूर्वक सेवा करने लगे। वह विप्र यद्यपि शंकर जी का भक्त था परंतु विष्णु-विरोधी नहीं था। सज्जन और निश्छल विप्र ने उन्हें शिव मंत्र दिया और पुत्र की भाँति शिक्षा देने लगे। कागभुशुण्ड कहते हैं कि वे स्वयं शंभु के उपासक और हरि के विरोधी थे जबकि उनके विप्र गुरु हरि और हर दोनों के भक्त थे। इसीलिए वे मन ही मन अपने गुरु से विरोध मानते थे।
एक बार कागभुशुण्ड महाकाल मंदिर में शिव का नाम जप रहे थे तभी उनके गुरु वहां आए। अति अभिमान के वशीभूत होकर कागभुशुण्ड ने उठकर अपने गुरु को प्रणाम नहीं किया। गुरु दयालु थे, उनके मन में तनिक भी क्रोध नहीं था इसलिए उन्होंने कुछ नहीं कहा। परंतु, गुरु के अपमान के पाप को महेश सहन नहीं कर सके। इसीलिए मंदिर में आकाशवाणी हुई- हे अभागे, अज्ञानी और अभिमानी ! यद्यपि तेरे कृपालु चित्त और सम्यक् बोध वाले गुरु के मन में क्रोध नहीं है फिर भी मैं तुझे श्राप दूँगा क्योंकि मुझे अनीति पसंद नहीं है। जो सठ गुरु से ईर्ष्या करते हैं वे घोर पापी और रौरव नर्क के भागी होते हैं। यदि मैं तुझे दंड नहीं दूंगा तो मेरा श्रुतिमार्ग नष्ट हो जाएगा। तू गुरु के आगमन पर भी अजगर के समान बैठा रहा, तेरी बुद्धि में मल व्याप्त है, तू उनके सम्मान में खड़ा नहीं हुआ इसलिए तू अधम से भी अधम गति को प्राप्त होकर महाविटप के कोटर में रहने वाला सर्प हो जा।
इस भयंकर श्राप को सुनकर गुरु हाहाकार कर उठे। मुझे कांपते देख उनके मन मे अत्यंत दया उपजी और मुझे घोर दुर्गति से उबारने के लिए वे हाथ जोड़कर महाकाल भगवान से विनती करने लगे-
नमामीशमीशान निर्वाण रूपं, विभुं व्यापकं ब्रह्म वेदः स्वरूपम् ।
अजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं, चिदाकाश माकाशवासं भजेऽहम् ॥
निराकार मोंकार मूलं तुरीयं, गिराज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् ।
करालं महाकाल कालं कृपालुं, गुणागार संसार पारं नतोऽहम् ॥
तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं, मनोभूत कोटि प्रभा श्री शरीरम् ।
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारू गंगा, लसद्भाल बालेन्दु कण्ठे भुजंगा॥
चलत्कुण्डलं शुभ्र नेत्रं विशालं, प्रसन्नााननं नीलकण्ठं दयालुम् ।
मृगाधीश चर्माम्बरं मुण्डमालं, प्रिय शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥
प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं, अखण्डं अजं भानु कोटि प्रकाशम् ।
त्रिधाशूल निर्मूलनं शूल पाणिं, भजेऽहं भवानीपतिं भाव गम्यम् ॥
कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी, सदा सज्जनान्द दाता पुरारी।
चिदानन्द सन्दोह मोहापकारी, प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥
न यावद् उमानाथ पादारविन्दं, भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् ।
न तावद् सुखं शांति सन्ताप नाशं, प्रसीद प्रभो सर्वं भूताधि वासं ॥
न जानामि योगं जपं नैव पूजा, न तोऽहम् सदा सर्वदा शम्भू तुभ्यम् ।
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं, प्रभोपाहि आपन्नामामीश शम्भो ॥
महाकाल प्रभु ने गुरु की प्रार्थना स्वीकार की और कागभुशुण्ड को श्राप से मुक्त कर दिया।
इस रुद्राष्टक का श्रद्धापूर्वक पाठ करने से भगवान महाकाल प्रसन्न होते हैं और भक्तों को जन्म-जन्मांतरों में मिले श्रापों से मुक्ति प्रदान करते हैं। गुसाईं जी ने श्री रुद्राष्टक के पाठ का महात्म्य बताया है-
रूद्राष्टकं इदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये,
ये पठन्ति नरा भक्तयां तेषां शंभुः प्रसीदति।
जय महाकाल॥
डॉ रमेश खन्ना
वरिष्ठ पत्रकार
हरीद्वार ( उत्तराखंड)