religion,धर्म-कर्म और दर्शन -149
religion and philosophy- 149
🌸🏵️मन की माया 🏵️🌸
सारी प्रकृति मनुष्य को छोड़कर मन से रहित है। ठीक से समझें, तो मनुष्य हम कहते ही उसे हैं, जिसके पास मन है। मनुष्य शब्द का भी वही अर्थ है, मन वाला।
मनुष्य में और पशुओं में इतना ही फर्क है कि पशुओं के पास कोई मन नहीं और मनुष्य के पास मन है। मनुष्य इसलिए मनुष्य नहीं कहलाता कि मनु का बेटा है, बल्कि इसलिए मनुष्य कहलाता है कि मन का बेटा है; मन से ही पैदा होता है। वह उसका गौरव भी है, वही उसका कष्ट भी है। वही उसकी शान भी है, वही उसकी मृत्यु भी है। मन के कारण वह पशुओं से ऊपर उठ जाता है। लेकिन मन के कारण ही वह परमात्मा नहीं हो पाता।
यह दूसरी बात भी खयाल में ले लें।
मन के कारण वह पशुओं के ऊपर उठ जाता है। लेकिन मन के ही कारण वह परमात्मा नहीं हो पाता। पशुओं से ऊपर उठना हो, तो मन का होना जरूरी है। और अगर मनुष्य के भी ऊपर उठना हो और परमात्मा को स्पर्श करना हो, तो मन का पुनः न हो जाना जरूरी है। यद्यपि मनुष्य जब मन को खो देता है, तो पशु नहीं होता, परमात्मा हो जाता है।
मनुष्य मन को जान लिया, और तब छोड़ता है। पशु ने मन को जाना नहीं, उसका उसे कोई अनुभव नहीं है। अनुभव के बाद जब कोई चीज छोड़ी जाती है, तो हम उस अवस्था में नहीं पहुंचते जब अनुभव नहीं हुआ था, बल्कि उस अवस्था में पहुंच जाते हैं जो अनुभव के अतीत है।
मन है चुनाव, च्वाइस–यह या वह। मन सोचता है ईदर-आर की भाषा में। इसे चुनूं या उसे चुनूं! दुकान पर आप खड़े हैं; मन सोचता है, इसे चुनूं, उसे चुनूं! समाज में आप खड़े हैं; मन सोचता है, इसे प्रेम करूं, उसे प्रेम करूं! प्रतिपल मन चुनाव कर रहा है, यह या वह। सोते-जागते, उठते-बैठते, मन कांटे की तरह डोल रहा है तराजू के। कभी यह पलड़ा भारी हो जाता है, कभी वह पलड़ा भारी हो जाता है।
और ध्यान रहे, जिस चीज को मन चुनता है, बहुत जल्दी उससे ऊब जाता है। मन ठहर नहीं सकता। इसलिए मन अक्सर जिसे चुनता है, उसके विपरीत चला जाता है। आज जिसे प्रेम करते हैं, कल उसे घृणा करने लगते हैं। आज जिसे मित्र बनाया, कल उसे शत्रु बनाने में लग जाते हैं। जो बहुत गहरा जानते हैं, वे तो कहेंगे, मित्र बनाना शत्रु बनाने की तैयारी है। इधर बनाया मित्र कि शत्रु बनने की तैयारी शुरू हो गई। मन लौटने लगा।
थियोडर रेक अमेरिका का एक बहुत विचारशील मनोवैज्ञानिक था। उसने लिखा है, मन के दो ही सूत्र हैं, इनफैचुएशन और फ्रस्ट्रेशन। उसने लिखा है, मन के दो ही सूत्र हैं, किसी चीज के प्रति आसक्त हो जाना और फिर किसी चीज से विरक्त हो जाना।
या तो मन आसक्त होगा, या विरक्त होगा। या तो पकड़ना चाहेगा, या छोड़ना चाहेगा। या तो गले लगाना चाहेगा, या फिर कभी नहीं देखना चाहेगा। मन ऐसी दो अतियों के बीच डोलता रहेगा। इन दो अतियों के बीच डोलने वाले मन का ही नाम संकल्पात्मक, संकल्प से भरा हुआ।
*डॉ रमेश खन्ना*
*वरिष्ठ पत्रकार*
*हरीद्वार (उत्तराखंड)*