religion,धर्म-कर्म और दर्शन -76
religion and philosophy- 76
🏵️बदलते सामाजिक ढांचे में , कितना उचित है, स्वयं श्राद्ध कर्म 🏵️
शास्त्रोक्त श्राद्ध कर्म से विमुख होते समाज में आज एक ज्वलंत मुद्दे पर रमेश खन्ना जी ने ये लेख लिखा है, इस विषय पर चर्चा अवश्य होनी ही चाहिए, हमारे शास्त्र यथा गरुण पुराण,कहते हैं कि तेरह दिनों के क्रियाकर्म किये जाने आवश्यक है क्योंकि हिन्दू धर्म की मान्यता पूर्वजन्म में है, इसलिए धर्म-कर्म और वैदिक विधान के समस्त विधानों का पालन करना अनिवार्य कहा गया है।
लेकिन बदलते समय के साथ व्यक्ति अपने माता-पिता अथवा परिजनों के मृत्यु उपरांत किये जाने वाले श्राद्ध कर्मों से विमुख हो रहा है, कारण है श्रद्धा का अभाव, जिसे मजबूरी और समय की कमी का आवरण ओढा कर व्यक्ति उचित साबित करना चाहता है,एक होड़ सी लगी है मृत्यु उपरांत तेरह दिनों के श्राद्ध कर्म को केवल तीन दिन में निपटाने की।
गरुण पुराण कहता है कि मृत्यु के बाद तेरह दिनों तक मृतात्मा अपने घर में ही रहती है, तेरहवीं के श्राद्ध कर्म के बाद आत्मा के लिए परलोक गमन के द्वार खुलते हैं लेकिन आज की पीढ़ी इन दायित्वों से बच कर निकलना चाहती है, तो फिर ऐसे में आत्मनश्राद्ध यानि अपनी मृत्यु से पूर्व अपने लिए स्वंय समस्त श्राद्ध कर्मों को पूरा करने का क्या कोई विधान है, क्या कोई व्यक्ति अपने जीवन में अपने लिए मृत्यु के बाद किये जाने वाले श्राद्ध कर्म को कर सकता है अथवा ये सोच गलत है, यूं तो हिन्दू धर्म में ये भी मान्यता है कि जब कोई अपना श्राद्ध कर्म स्वयं कर लेता है तो वह प्रेत योनि में चला जाता है, न तो उसका आशिर्वाद सार्थक होता है और ना ही उस व्यक्ति के जीवित रहते हुए धर्म-कर्म ही फली भूत होते हैं, तो फिर जीवित रहते स्वंय के श्राद्ध कर्म कहां तक उचित है।
प्रश्न ये भी पैदा होता है कि संत समाज जिसे हम शीश नवा कर आशीर्वाद लेते हैं, उनके आशीर्वाद का क्या औचित्य है, क्यों कि सभी संत जो भगवा चोला धारण करते हैं पहले अपनी समस्त वृत्तियों और सम्पत्तियों का त्याग कर,अपना श्राद्ध कर्म और पिंडदान करने के बाद ही संन्यास धारण कर सकते हैं, तो फिर उन संतों से लिए जाने वाले आशिर्वाद और प्रसाद को क्या कहा जाए,इस विषय पर क्या कहते हैं हमारे धर्म शास्त्र? ऐसे ही अनेक प्रश्नों के उतर देता हुआ प्रतीत हो रहा है रमेश खन्ना जी का ये लेख पढ़ें और आलोचना करने का मन हो तो अवश्य करें आप Newsok24.com के फेसबुक पेज को ज्वाइन कर के वहां हमें अपने विचार लिख सकते हैं, हम उन्हें प्रकाशित करेंगे पेज का लिंक दिया गया है आप सीधे पेज पर पहुंच कर अपनी राय और जिज्ञासा हमें भेज सकते हैं 🙏
श्रीमती शशि शर्मा संपादक
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🔥💥क्या है जीवच्छ्राद्ध ? कितना उचित कितना अनुचित 💥🔥
जीवित श्राद्ध की चर्चा सुनी थी इसकी विस्तार से चर्चा की जानी चाहिए।क्योंकि आजकल उत्तराधिकारीयों में श्रद्धा का अभाव है।
मैंने भी विचार किया की विस्तार से एक बार लिखा जाना चाहिए, जिसके पीछे मेरा अपना कारण भी था। मुझे समाज में जन्म से मृत्यु पर्यंत सम्पन्न होने वाले संस्कारों में उपस्थित होने का अवसर प्राप्त होता है। वहाँ श्रद्धा का अभाव देखकर घोर कष्ट होता है।
अस्तु विषय प्रवेश :-
पितरों के लिए श्राद्ध, पिंडदान आदि करना तो, शास्त्रोंमें व लोकमें प्रसिद्ध है ही, और होना भी चाहिए साथ ही जीवित व्यक्ति भी स्वयं अपने लिए श्राद्ध, पिंडदानादि और्ध्वदैहिक क्रियाएं संपन्न कर सकता है। जिनसे उन्हें श्राद्ध का विशेष लाभ मिलता है।
शास्त्रीय प्रमाण :-
1. गयाजीमें पितरोंके साथ ही अपने लिए भी तिलके बिना पिंड दान करनेका विधान है।
पिण्डं दद्याद् पित्रादेरात्मनोऽपि तिलैर्विना। (वायुपुराण – 105/12)
2. स्वयं अपने लिए भी व्यक्ति दाह संस्कारसे लेकर, सपिंडीकरण तक सब कुछ कर सकता है।
जीवता स्वार्थोद्देश्येन कर्तव्यं श्राद्धं जीवच्छ्राद्धमित्युच्यते।*
(बौधायनगृह्यसूत्र_पितृमेधसूत्र-२/९/५७/१)
अपनी जीवित अवस्थामें ही स्वयंके कल्याणके उद्देश्यसे किया जाने वाला श्राद्ध जीवच्छ्राद्ध कहलाता है।
जीवच्छ्राद्ध समर्थ पुत्र आदि उत्तराधिकारियोंके न रहने पर अथवा रहने पर भी किया जाता है।🔥जीवन्नेवात्मनः_श्राद्धं_कुर्यादन्येषु_सत्स्वपि।
(हेमाद्री पृ.1710, वीरमित्रोदयश्राद्ध प्र.पृष्ठ 363)
अपने शास्त्रोंमें जीवित श्राद्ध करनेकी पद्धति बतलाई गई है ।
जिसे व्यक्ति स्वयं अपनी जीवित अवस्थामें शास्त्रोक्त विधिसे संपन्न कर सकता है।
जिससे श्राद्धकी संपूर्ण प्रक्रिया पूरी हो जाती है।
इसके बाद भी मृत्युके उपरांत कर्तव्यकी भावनासे यदि कोई उत्तराधिकारी श्राद्ध आदि करता है, तो करने वालेको तथा उस प्राणीको दोनोंको पुण्य लाभ होता है।और न करने पर भी प्राणीको इसकी अपेक्षा नहीं रहती।किन्तु उत्तराधिकारी को अपना कर्तव्य न करने का दोष अवश्य लगता है।
जीवच्छ्राद्धकी_संक्षिप्त_विधि
किसी भी महीनेके कृष्ण पक्ष की द्वादशीसे लेकर शुक्ल पक्षकी प्रतिपदा तक 5 दिनमें जीवित श्राद्धके संपूर्ण कार्य संपन्न होते हैं ।
*प्रथम दिन*
१)अधिकार प्राप्तिके लिए प्रायश्चितका अनुष्ठान, २)प्रायश्चितके पूर्वांग तथा उत्तर अंगके कृत्य
३)दश महादान
४)अष्ट महादान तथा
५)पंचधेनुदान आदि कृत्य ।
*द्वितीय दिन*
१)शालग्रामपूजन
२)जलधेनुका स्थापन एवं पूजन
३)वसुरुद्रादित्यपार्वणश्राद्ध तथा
४)भगवत्स्मरण पूर्वक रात्रि जागरण आदि कृत्य।
*तृतीय दिन* –
१)अपनी प्रतिकृति यानी पुत्तलका निर्माण
२)षट्पिंडदान
३)चितापर पुत्तलदाहकी क्रिया
४)दशगात्रके पिंडदान तथा
५)शयन आदि कृत्य ।
*चतुर्थ दिन*
१)मध्यमषोडशी
२)आद्यश्राद्ध
३)शैय्यादान
४)वृषोत्सर्ग
५)वैतरणी गोदान तथा
६)उत्तमषोडशीश्राद्ध आदि कृत्य ।
*पंचम दिन*
१)सपिंडीकरणश्राद्ध
२)गणेशाम्बिकापूजन, और कलशपूजन
३)शैय्यादानादि कृत्य
४)पददान एवं
५)ब्राह्मणभोजन ।
इसप्रकार 5 दिनोंमें जीवच्छ्राद्ध पूर्ण हो जाता है।
*जीवच्छ्राद्धकी_महिमा* –
१ जीवच्छ्राद्ध करनेसे जीव जीवन मुक्त हो जाता है अतः नित्य – नैमित्तिक आदि विधि बोधित कार्योंके संपादन करने अथवा त्याग करनेके लिए वह स्वतंत्र है ।
जीवच्छ्राद्धे कृते जीवो जीवन्नेव विमुच्यते।
नित्यनैमित्तिकादीनि कुर्याद्वा सन्त्यजेत्तु वा।!!
(लिंग० उ०भाग )
२ बान्धवोंके मरने पर उसके लिए आशौच विचार भी नहीं है, उसे सूतक प्रवृत्त नहीं होता, वह स्नान मात्रसे शुद्ध हो जाता है।
*बांधवेऽपि मृते तस्य शौचाशौचं न विद्यते।।*
(लिंग० उ०भाग )
३ जीव श्राद्ध कर लेनेके अनंतर अपनी पाणिगृहीता भार्यामें अपने द्वारा पुत्रकी उत्पत्ति हो जाए तो उसे अपनी नवजात संततिके समस्त संस्कारोंको संपादित करना चाहिए।
ऐसा पुत्र ब्रह्मवित् और कन्या सुब्रता अपर्णा पार्वतीकी भांति हो जाती है। इसमें संदेह नहीं।
४ जीवच्छ्राद्ध कर्ताके कुलमें उत्पन्न हुए लोग तथा पिता माता भी नरकसे मुक्त हो जाते हैं ।
५ जीवच्छ्राद्धकर्ता मातृ- पितृ ऋणसे भी मुक्त हो जाता है।
६ यह धारणा सर्वथा निर्मूल है कि जीव श्राद्ध कर्ता लोकव्यवहारके लिए अनुपयुक्त (अपवित्र आदि) हो जाता है।
७ लोकमें इस विषयमें एक शंका होती है- कि पत्नीके रहते पुरुषको जीवच्छ्राद्ध नहीं करना चाहिए इसका कारण इसमें पुतला आदिके कारण पत्नीको वैधव्यकी भावना बन सकती है।
परंतु इसका समाधान यह है- कि पत्नीका जीवच्छ्राद्ध पूर्वमें कराकर पुरुष अपना श्रद्धा करे।
८ यदि कोई व्यक्ति अपनी अस्वस्थता आदिके कारण स्वयं श्राद्ध करनेमें सक्षम नहीं है तो प्रतिनिधिके द्वारा भी इस श्राद्ध को करा सकता है।
इस संबंधमें विशेष जानकारीके लिए लिंगपुराण के उत्तर भाग का 45 वां अध्याय तथा
गीताप्रेस की बड़ी सरल एवं सुगम पद्धति रूप में निकाली गई जीवच्छ्राद्ध पद्धति अवश्य पढ़ना चाहिए ।विरमित्रोदय श्राद्धप्रकाश में भी इसकी चर्चा है।
*डॉ रमेश खन्ना*
*वरिष्ठ पत्रकार*
*हरिद्वार उत्तराखंड*