religion,धर्म-कर्म और दर्शन -85
religion and philosophy- 85
🏵️कलियुगी पन्थों पर विचार🏵️
आज कई तथाकथित सम्प्रदायों के लोग अधमतम स्तर की आस्तिकता की भी धज्जियाँ उड़ाकर धर्म के नामपर अपने सहित प्रजाओं को असुरों के मुख में डाल रहे हैं। इनके विरोध में शास्त्रज्ञजन उन्हीं लोगों पर प्रहार करते हैं, जो वर्त्तमान में बाहर पाखण्डाचार में लिप्त दिख रहे हैं। उदाहरणतः प्रेतानन्द, अभद्रा, राजू आदि।
परन्तु जब जड़ ही दूषित है, तो पत्तों को क्या दोष दें। ऐसी प्रत्येक विकृति का कारण कोई ऊपर से बड़ा व्यक्ति ही बनता है। नास्तिकमतों और आसुरमतों के प्रवर्त्तक कोई साधारण मनुष्य नहीं हैं, अपितु शिष्टों के रूप में मान्य लोग ही वैसा भी मार्ग दिखाते हैं। उसी प्रकार इन सब छद्मवैष्णवों के मूल में भी इनके प्रसिद्ध पूर्वाचार्यों का खेल दिख जायेगा।
मूल श्रौतस्मार्त्तपरम्परा में विकृति लाकर उसके नामपर पाखण्ड तो कलियुगकार्यसाधक है ही। परन्तु बुद्धिमान् तो मूल धर्म को पकड़ सकते हैं, इसलिये क्या किया जाये? तब कलियुग का कार्य सिद्ध करने में कुछ पन्थ स्वरूपतः ही सहायक हो जाते हैं। अर्थात् उनके प्रसिद्ध आचार्यजन, जिनमें कुछ देवावतार भी होते हैं, वे भी कलियुग को मार्ग देने के लिये धर्म के साथ साथ पाखण्ड का उपदेश करके बीज बो देते हैं, जिससे आगे पाखण्डमहारण्य बन जाता है।
आप लोगों ने ‘बीवी नचियार’ के बारे में पढ़ा है? यदि नहीं, तो पढ़िये। इण्टरनेट पर भी बहुत कुछ मिल जायेगा। पता चलेगा कि कैसे कुछ रामानुजियों ने एक पैशाचराजकन्या अर्थात् मुस्लिम शाहजादी को भगवान् की पत्नी घोषित करके श्रीरङ्गनाथमन्दिर आदि में उसे पूजना प्रारम्भ कर दिया। रसखानादि म्लेच्छजनों को श्रोत्रियब्राह्मणों से भी बड़ा भक्त बताने का पाखण्ड कहाँ, कब, किन पन्थों में, किन-किनके कथित ‘आचार्यत्व’ में हुआ? राधावल्लभपन्थ के सरगना हरिराम व्यास आदि ने भक्ति के नामपर वर्णाश्रम की निन्दा, श्रौतस्मार्त्तमर्यादाओं की निन्दा कैसे की है, यह उन लोगों के मूल ग्रन्थों में देखें।
कार्य देखकर कारण का अनुमान होता है। उस कारण का ही खण्डन करना चाहिये। जैसे ब्रह्मसूत्र और उसके भाष्य में श्री– कपिल, पतञ्जलि, कणाद, गौतम, जैमिनि, बृहस्पति, सुगत, अर्हत्, नारायण, पशुपति इन मूल व्यक्तियों के ही नाम अथवा मूल ग्रन्थ या सिद्धान्त ही का उद्देश करके ही खण्डन किया गया है।
धर्मकीर्त्ति, मण्डनमिश्र आदि क्या कह रहे थे, उससे प्रयोजन नहीं। मूलतः कहाँ विकृति है और कहाँ से आई है, उससे प्रयोजन है। प्रधानमल्लनिर्बहणन्याय इसे कहते हैं। जब किसी के परमाचार्य को ही निपटा दिया, तो फिर भ्रष्ट चेले कहाँ टिकते हैं?
परन्तु यदि यथार्थ मूलज्ञान के बिना केवल लोकप्रसिद्धि के कारण किसी भी पूर्वाचार्य को सम्माननीय समझ लिया जाता है और तब उसके विकृत पन्थ को भी एक ढंग से प्रमाणपत्र मिल ही जाता है, तब अच्छे शास्त्रज्ञ भी लोकनाश के हेतु बन सकते हैं, अतः सावधानी आवश्यक है।
यदि पूछें कि आगमों में इन मतपन्थसम्प्रदायों और उनके आचार्यों के उल्लेख मिलते हैं, इसपर हम क्या कहेंगे?
तो सुनिये ! चार्वाकबौद्धजैनादि नास्तिकमतों और न्यायवैशेषिकादि अवैदिकांशयुक्तमतों में भी शास्त्रोक्तत्व की सामान्यतः व्याप्ति होने से वह हेतु व्यभिचारी है। शास्त्रोक्तत्व मात्र ही धर्मत्व का हेतु नहीं, क्योंकि शास्त्रोक्तत्व तो द्वेषजन्य अभिचारादि अधर्मों में भी कर्त्तव्यभूत अग्निहोत्रादि धर्मों के समान ही है। शास्त्र तो वहाँ केवल इतना कह रहा है कि वैष्णवादि में भी अमुक अमुक सम्प्रदाय, पन्थ, मत आदि कलियुग में होंगे। यदि कहें कि उन मतों की प्रशंसा भी है। परन्तु वह तो सांख्यन्यायवैशेषिकादि की भी है ही, तब श्रीवेदव्यास ने उन्हें किसी अंश में वेदविरुद्ध कहकर क्या शास्त्र के एकदेश का विरोध किया, ऐसा कहा जायेगा? नही। श्येनविधि के साथ भी प्रशंसा हेतु अर्थवाद होते हैं।
न्यायादि की अवैदिकता तो अलग ढंग की है। वर्णाश्रम और श्रौतस्मार्त्तमर्यादा के निन्दक वे नहीं, अपितु निन्दकों को भीषण दण्ड देनेवाले ही हैं।
परन्तु ये कलियुगी पन्थ तो वैष्णवता के नामपर वेदों की धज्जियाँ उड़ाने में लिप्त हैं। शाक्तत्व और शैवत्व के नामपर कई लोग वर्णाश्रमनिन्दा, श्रौतस्मार्त्तविरोध, अभक्ष्यभक्षण, अगम्यागमन, व्यभिचार आदि में लिप्त हैं। काल की मर्यादा का ध्यान रखकर समय आनेपर इन सबका शमन करके जैसा सम्प्रदायमण्डल भारतवर्ष में होना चाहिये वैसा ही स्थापित कर दिया जायेगा।
॥ नमश्चण्डिकायै ॥
*डॉ रमेश खन्ना*
*वरिष्ठ पत्रकार*
*हरीद्वार उत्तराखंड*