religion,धर्म-कर्म और दर्शन -105
religion and philosophy- 105
🏵️विपरित प्रत्यंगिरा मंत्र प्रयोग 🏵️
अत्यन्त उग्र एवं प्रभावशाली सिद्ध विद्या हैं। सर्वबाधाओं के निवारणार्थ एवं परम सौभाग्य की वृद्धि हेतु इनके तंत्रप्रयोगों का आश्रय लिया जाता है।
विशेषतः शत्रु के अधिकार में गयी हुई सम्पत्ति या राज्य पुनः प्राप्त करने हेतक्रूरग्रहों की मारक दशा, अकालमृत्यु, शत्रुप्रहार, दरिद्रता, दुर्भाग्य, असाध्यरोग, दैवीयदोष, भूतप्रेत, वेताल, ब्रह्मराक्षस आदि अनिष्टकारी तंत्रशक्तियों के निवारण हेतु मुख्य रूप से इनकी उपासना की जाती है।
विपरित प्रत्यंगिरा अपने जापक की सुरक्षा कर शत्रुदल का संहार करती हैं तथा शत्रुपक्ष द्वारा किये गये तांत्रिक प्रयोगों को वापिस शत्रुपक्ष की ओर भेजकर शत्रु को दण्डित करती हैं।
उग्र विद्याओं के प्रयोगों में नित्य बलि एवं शान्ति कर्म का आयोजन अवश्य करना चाहिये ।
प्रत्यंगिरा देवि भगवति महाकालि का रौद्र स्वरूप है।
इनके मंत्र प्रयोगों में अनुभव एवं तंत्रज्ञान का विशेष महत्त्व होता है।
इसलिये सकाम अनुष्ठानों को अनुभवी साधक के मार्गदर्शन में ही सम्पन्न करना चाहिये ।
प्रेतशक्ति अधिक बलवान हो तो प्रत्यंगिरा अनुष्ठान के अन्तर्गत पीड़ीत मनुष्य को कई उपद्रवों को सामना करना पड़ सकता है।
जैसे-
अकारण ही लड़ाई-झगड़े, व्यापार में एकदम बड़ा नुकसान, शारीरिक दुर्घटना, परिवारिक कलेश, साधनाकाल में अनेकों विघ्न उत्पन्न होना, रात्रिकाल में भयभीत होना, अकारण शत्रुता आदि ।
ऐसी विकट परिस्थिति में सही दिशा और अनुभव की विशेष आवश्यकता होती है। इसलिये इनके अनुष्ठानों को अत्यन्त सावधानी से सम्पन्न करना चाहिये ।
प्रत्यंगिरा सर्वबाधाओं से मुक्ति, शत्रुओं के विनाश, तंत्रबाधा से अपनी देह स्थान एवं परिवार की सुरक्षा के लिये प्रार्थनी की गयी है।
प्रत्यंगिरा स्तोत्र में “”कामकला कालि का बीजमंत्र”” भी सम्मिलित है, जिससे स्तोत्र के पाठ से अति सुखद परिणाम प्राप्त होते हैं।
प्रारम्भ में देवी के साथ उनकी मुख्य शक्तियों का पूजन करें। रात्रिकाल में इनकी उपासना त्वरित फल प्रदान करती है।
विपरीत प्रत्यंगिरा स्तोत्र
नमस्कार मन्त्रः-
श्रीमहा-विपरीत-प्र-त्यंगिरा-काल्यै नमः
महेश्वर उवाच
श्रृणु देवि, महा-विद्यां, सर्व-सिद्धि-प्रदाय- िकां।
यस्याः विज्ञान-मात्रेण, शत्रु-वर्गाः लयं गताः।।
विपरीता महा-काली, सर्व-भूत-भयंकरी।
यस्याः प्रसंग-मात्रेण, कम्पते च जगत्-त्रयम्।।
न च शान्ति-प्रदः कोऽपि, परमेशो न चैव हि।
देवताः प्रलयं यान्ति, किं पुनर्मानवादयः।।
पठनाद्धारणाद्देव- , सृष्टि-संहारको भवेत्।
अभिचारादिकाः सर्वेया या साध्य-तमाः क्रियाः।।
स्मरेणन महा-काल्याः, नाशं जग्मुः सुरेश्वरि,
सिद्धि-विद्या महा काली, परत्रेह च मोदते।।
सप्त-लक्ष-महा-विद्- , गोपिताः परमेश्वरि,
महा-काली महा-देवी, शंकरस्येष्ट-देवता- ।
यस्याः प्रसाद-मात्रेण, पर-ब्रह्म महेश्वरः।
कृत्रिमादि-विषघ्न- सा, प्रलयाग्नि-निवर्त- का।।
त्वद्-भक्त-दशंनाद्- देवि, कम्पमानो महेश्वरः।
यस्य निग्रह-मात्रेण, पृथिवी प्रलयं गता।।
दश-विद्याः सदा ज्ञाता, दश-द्वार-समाश्रिता- ः।
प्राची-द्वारे भुवनेशी, दक्षिणे कालिका तथा।।
नाक्षत्री पश्चिमे द्वारे, उत्तरे भैरवी तथा।
ऐशान्यां सततं देवि, प्रचण्ड-चण्डिका तथा।।
आग्नेय्यां बगला-देवी, रक्षः-कोणे मतंगिनी,
धूमावती च वायव्वे, अध-ऊर्ध्वे च सुन्दरी।।
सम्मुखे षोडशी देवी, सदा जाग्रत्-स्वरुपिणी-
वाम-भागे च देवेशि, महा-त्रिपुर-सुन्दरी।।
अंश-रुपेण देवेशि, सर्वाः देव्यः प्रतिष्ठिताः।
महा-प्रत्यंगिरा सैव, विपरीता तथोदिता।।
महा-विष्णुर्यथा ज्ञातो, भुवनानां महेश्वरि।
कर्ता पाता च संहर्ता, सत्यं सत्यं वदामि ते।।
भुक्ति-मुक्ति-प्रदाय देवी, महा-काली सुनिश्चिता।
वेद-शास्त्र-प्रगुप-ता सा, न दृश्या देवतैरपि।।
अनन्त-कोटि-सूर्याभ- ा, सर्व-शत्रु-भयंकरी।
– ध्यान-ज्ञान-विहीना- सा, वेदान्तामृत-वर्षिणी।।
सर्व-मन्त्र-मयी काली, निगमागम-कारिणी।
निगमागम-कारी सा, महा-प्रलय-कारिणी।।
यस्या अंग-घर्म-लवा, सा गंगा परमोदिता।
महा-काली नगेन्द्रस्था, विपरीता महोदयाः।।
यत्र-यत्र प्रत्यंगिरा, तत्र काली प्रतिष्ठिता।
सदा स्मरण-मात्रेण, शत्रूणां निगमागमाः।।
नाशं जग्मुः नाशमायुः सत्यं सत्यं वदामि ते।
पर-ब्रह्म महा-देवि, पूजनैरीश्वरो भवेत्।।
शिव-कोटि-समो योगी, विष्णु-कोटि-समः स्थिरः।
सर्वैराराधिता सा वै, भुक्ति-मुक्ति-प्रदायिनी।।
गुरु-मन्त्र-शतं जप्त्वा, श्वेत-सर्षपमानयेत- ।
दश-दिशो विकिरेत् तान्, सर्व-शत्रु-क्षयाप्- तये।।
भक्त-रक्षां शत्रु-नाशं, सा करोति च तत्क्षणात्।
ततस्तु पाठ-मात्रेण, शत्रुणां मारणं भवेत्।।
गुरु-मन्त्रः
“ॐ हूं स्फारय-स्फारय, मारय-मारय,
शत्रु-वर्गान् नाशय-नाशय स्वाहा।”
विनियोगः
सीधे हाथ में जल लेकर विनियोग पढ़कर जल भूमि पर छोड़ दे।
ॐ अस्य श्रीमहा-विपरीत-प्र-त्यंगिरा-स्तोत्र-म- ाला-मन्त्रस्य श्रीमहा-काल-भैरव ऋषिः,
त्रिष्टुप् छन्दः, श्रीमहा-विपरीत-प्र- त्यंगिरा देवता,
हूं बीजं,
ह्रीं शक्तिः,
क्लीं कीलकं,
मम श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-प्रसादात- सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर- वक सर्व-शत्रूणां नाशार्थे यथोक्त-फल-प्राप्त्- यर्थे वा पाठे विनियोगः।
ऋष्यादि-न्यासः
शिरसि श्रीमहा-काल-भैरव ऋषये नमः।
मुखे त्रिष्टुप् छन्दसे नमः।
हृदि श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा देवतायै नमः।
गुह्ये हूं बीजाय नमः।
पादयोः ह्रीं शक्तये नमः।
नाभौ क्लीं कीलकाय नमः।
सर्वांगे मम श्रीमहा-विपरीत-प्रत्यंगिरा-प्रसादात- सर्वत्र सर्वदा सर्व-विध-रक्षा-पूर- वक सर्व-शत्रूणां नाशार्थे यथोक्त-फल-प्राप्त्- यर्थे वा पाठे विनियोगाय नमः।
कर-न्यासः
हूं ह्रीं क्लीं ॐ अंगुष्ठाभ्यां नमः।
हूं ह्रीं क्लीं ॐ तर्जनीभ्यां नमः।
हूं ह्रीं क्लीं ॐ मध्यमाभ्यां नमः।
हूं ह्रीं क्लीं ॐ अनामिकाभ्यां नमः।
हूं ह्रीं क्लीं ॐ कनिष्ठिकाभ्यां नमः।
हूं ह्रीं क्लीं ॐ कर-तल-द्वयोर्नमः।
हृदयादि-न्यासः
हूं ह्रीं क्लीं ॐ हृदयाय नमः।
हूं ह्रीं क्लीं ॐ शिरसे स्वाहा।
हूं ह्रीं क्लीं ॐ शिखायै वषट्।
हूं ह्रीं क्लीं ॐ कवचाय हुम्।
हूं ह्रीं क्लीं ॐ नेत्र-त्रयाय वौषट्।
हूं ह्रीं क्लीं ॐ अस्त्राय फट्।
मूल स्तोत्र-पाठ
ॐ नमो विपरीत-प्रत्यंगिर- यै सहस्त्रानेक-कार्य– लोचनायै कोटि-विद्युज्जिह्यै महा-व्याव्यापिन्य- संहार-रुपायै जन्म-शान्ति-कारिण्- यै।
मम स-परिवारकस्य भावि-भूत-भवच्छत्रून् स-दाराऽपत्यान् संहारय संहारय,
महा-प्रभावं दर्शय दर्शय, हिलि हिलि, किलि किलि, मिलि मिलि, चिलि चिलि, भूरि भूरि, विद्युज्जिह्वे, ज्वल ज्वल,
प्रज्वल प्रज्वल, ध्वंसय ध्वंसय, प्रध्वंसय प्रध्वंसय,
ग्रासय ग्रासय, पिब पिब, नाशय नाशय, त्रासय त्रासय, वित्रासय वित्रासय, मारय मारय, विमारय विमारय,
भ्रामय भ्रामय, विभ्रामय विभ्रामय, द्रावय द्रावय,
विद्रावय विद्रावय हूं हूं फट् स्वाहा।।1।।
हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- ,
हूं लं ह्रीं लं क्लीं लं ॐ लं फट् फट् स्वाहा।
हूं लं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- ।
मम स-परिवारकस्य यावच्छत्रून् देवता-पितृ-पिशाच-न- ग-गरुड़-किन्नर-विद- याधर-गन्धर्व-यक्ष– राक्षस-लोक-पालान् ग्रह-भूत-नर-लोकान् स-मन्त्रान् सौषधान् सायुधान् स-सहायान् बाणैः
छिन्दि छिन्दि, भिन्धि भिन्धि, निकृन्तय निकृन्तय, छेदय छेदय, उच्चाटय उच्चाटय, मारय मारय, तेषां साहंकारादि-धर्मान- कीलय कीलय, घातय घातय, नाशय नाशय, विपरीत-प्रत्यंगिरा
स्फ्रें स्फ्रेंत्कारिणि।
ॐ ॐ जं जं जं जं जं, ॐ ठः ठः ठः ठः ठः
मम स-परिवारकस्य शत्रूणां सर्वाः विद्याः स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय,
हस्तौ स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय,
मुखं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय,
नेत्राणि स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय,
दन्तान् स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय,
जिह्वां स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय,
पादौ स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय,
गुह्यं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय,
स-कुटुम्बानां स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय, स्थानं स्तम्भय स्तम्भय, नाशय नाशय,
सम्प्राणान् कीलय कीलय, नाशय नाशय,
हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं
क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं
ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं ऐं
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।
मम स-परिवारकस्य सर्वतो रक्षां कुरु कुरु,
फट् फट् स्वाहा ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं।।2।।
ऐं ह्रूं ह्रीं क्लीं हूं सों विपरीत-प्रत्यंगिर- , मम स-परिवारकस्य भूत-भविष्यच्छत्रू- समुच्चाटनं कुरु कुरु, हूं हूं फट् फट् स्वाहा, ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं वं वं वं वं वं लं लं लं लं लं लं रं रं रं रं रं यं यं यं यं यं ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ नमो भगवति, विपरीत-प्रत्यंगिर- ,
दुष्ट-चाण्डालिनि, त्रिशूल-वज्रांकुश– शक्ति-शूल-धनुः-शर-प- श-धारिणि, शत्रु-रुधिर-चर्म मेदो-मांसास्थि-मज्- जा-शुक्र-मेहन्-वसा– ाक्-प्राण-मस्तक-हे- त्वादि-भक्षिणि,
पर-ब्रह्म-शिवे, ज्वाला-दायिनि, ज्वाला-मालिनि, शत्रुच्चाटन-मारण-क- ्षोभण-स्तम्भन-मोहन- -द्रावण-जृम्भण-भ्र- मण-रौद्रण-सन्तापन– यन्त्र-मन्त्र-तन्त्र- रान्तर्याग-पुरश्- रण-भूत-शुद्धि-पूजा– फल-परम-निर्वाण-हरण– कारिणि, कपाल-खट्वांग-परशु– ारिणि।
मम स-परिवारकस्य भूत-भविष्यच्छत्रु- ् स-सहायान् स-वाहनान् हन हन रण रण, दह दह, दम दम, धम धम, पच पच, मथ मथ, लंघय लंघय, खादय खादय, चर्वय चर्वय, व्यथय व्यथय, ज्वरय ज्वरय, मूकान् कुरु कुरु, ज्ञानं हर हर, हूं हूं फट् फट् स्वाहा।।3।।
ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं
क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- ।
ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं
क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् स्वाहा।
मम स-परिवारकस्य कृत मन्त्र-यन्त्र-तन्त- ्र-हवन-कृत्यौषध-वि- -चूर्ण-शस्त्राद्य- िचार-सर्वोपद्रवाद- िकं येन कृतं, कारितं, कुरुते, करिष्यति, तान् सर्वान् हन हन, स्फारय स्फारय, सर्वतो रक्षां कुरु कुरु, हूं हूं फट् फट् स्वाहा।
हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं
क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।।4।।
ॐ हूं ह्रीं क्लीं ॐ अं विपरीत-प्रत्यंगिर- , मम स-परिवारकस्य शत्रवः कुर्वन्ति, करिष्यन्ति, शत्रुस्च, कारयामास, कारयिष्यन्ति, याऽ याऽन्यां कृत्यान् तैः सार्द्ध तांस्तां विपरीतां कुरु कुरु,
नाशय नाशय, मारय मारय, श्मशानस्थां कुरु कुरु,
कृत्यादिकां क्रियां भावि-भूत-भवच्छत्रूणां यावत् कृत्यादिकां विपरीतां कुरु कुरु, तान् डाकिनी-मुखे हारय हारय,
भीषय भीषय, त्रासय त्रासय, मारय मारय, परम-शमन-रुपेण हन हन, धर्मावच्छिन्न-निर- वाणं हर हर, तेषां इष्ट-देवानां शासय शासय, क्षोभय क्षोभय, प्राणादि-मनो-बुद्ध- यहंकार-क्षुत्-तृष्- णाऽऽकर्षण-लयन-आवाग- मन-मरणादिकं नाशय नाशय,
हूं हूं ह्रीं ह्रीं क्लीं क्लीं ॐ फट् फट् स्वाहा।।5।।
क्षं ऴं हं सं षं शं।
वं लं रं यं।
मं भं बं फं पं।
नं धं दं थं तं।
णं ढं डं ठं टं।
ञं झं जं छं चं।
ङं घं गं खं कं।
अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं।
हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं
क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- ,
हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं
क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।
क्षं ऴं हं सं षं शं। वं लं रं यं। मं भं बं फं पं। नं धं दं थं तं।
णं ढं डं ठं टं। ञं झं जं छं चं। ङं घं गं खं कं।
अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं,
हूं हूं हूं हूं हूं हूं हूं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं ह्रीं
क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं क्लीं
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ फट् फट् स्वाहा।।6।।
अः अं औं ओं ऐं एं ॡं लृं ॠं ऋं ऊं उं ईं इं आं अं।
ङं घं गं खं कं। ञं झं जं छं चं।
णं ढं डं ठं टं। नं धं दं थं तं। मं भं बं फं पं। वं लं रं यं।
क्षं ऴं हं सं षं शं। ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ मम स-परिवारकस्य स्थाने मम शत्रूणां कृत्यान् सर्वान् विपरीतान् कुरु कुरु,
तेषां मन्त्र-यन्त्र-तन्त- ्रार्चन-श्मशानारो- ण-भूमि-स्थापन-भस्म- -प्रक्षेपण-पुरश्चरण-होमाभिषेकादिकान- कृत्यान् दूरी कुरु कुरु, नाशं कुरु कुरु, हूं विपरीत-प्रत्यंगिर- ।
मां स-परिवारकं सर्वतः सर्वेभ्यो रक्ष रक्ष हूं ह्रीं फट् स्वाहा।।7।।
अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः।
कं खं गं घं ङं। चं छं जं झं ञं। टं ठं डं ढं णं।
तं थं दं धं नं। पं फं बं भं मं। यं रं लं वं। शं षं सं हं ळं क्षं।
ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं
ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ हूं ह्रीं क्लीं
ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- । हूं ह्रीं क्लीं ॐ फट् स्वाहा।
ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं
ॐ क्लीं ह्रीं श्रीं,
अं आं इं ईं उं ऊं ऋं ॠं लृं ॡं एं ऐं ओं औं अं अः।
कं खं गं घं ङं। चं छं जं झं ञं। टं ठं डं ढं णं। तं थं दं धं नं।
पं फं बं भं मं। यं रं लं वं। शं षं सं हं ळं क्षं।
विपरीत-प्रत्यंगिर। मम स-परिवारकस्य शत्रूणां विपरीतादि-क्रियां नाशय नाशय, त्रुटिं कुरु कुरु, तेषामिष्ट-देवतादि– विनाशं कुरु कुरु, सिद्धिं अपनयापनय, विपरीत-प्रत्यंगिर- , शत्रु-मर्दिनि। भयंकरि। नाना-कृत्यादि-मर्द- िनि, ज्वालिनि, महा-घोर-तरे,
त्रिभुवन-भयंकरि शत्रूणां मम स-परिवारकस्य चक्षुः-श्रोत्रादि– पादौं सवतः सर्वेभ्यः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु स्वाहा।।8।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वसुन्धरे।
मम स-परिवारकस्य स्थानं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।9।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ महा-लक्ष्मि।
मम स-परिवारकस्य पादौ रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।10।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चण्डिके।
मम स-परिवारकस्य जंघे रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।11।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ चामुण्डे।
मम स-परिवारकस्य गुह्यं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।12।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ इन्द्राणि।
मम स-परिवारकस्य नाभिं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।13।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ नारसिंहि।
मम स-परिवारकस्य बाहू रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।14।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वाराहि।
मम स-परिवारकस्य हृदयं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।15।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ वैष्णवि।
मम स-परिवारकस्य कण्ठं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।16।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ कौमारि।
मम स-परिवारकस्य वक्त्रं रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।17।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ माहेश्वरि।
मम स-परिवारकस्य नेत्रे रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।18।।
श्रीं ह्रीं ऐं ॐ ब्रह्माणि।
मम स-परिवारकस्य शिरो रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।19।।
हूं ह्रीं क्लीं ॐ विपरीत-प्रत्यंगिर- ।
मम स-परिवारकस्य छिद्रं सर्व गात्राणि रक्ष रक्ष हुं फट् स्वाहा।।20।।
सन्तापिनी संहारिणी, रौद्री च भ्रामिणी तथा।
जृम्भिणी द्राविणी चैव, क्षोभिणि मोहिनी ततः।।
स्तम्भिनी चांडशरुपास्ताः, शत्रु-पक्षे नियोजिताः।
प्रेरिता साधकेन्द्रेण, दुष्ट-शत्रु-प्रमर्- दिकाः।।
ॐ सन्तापिनि!
स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् सन्तापय सन्तापय हूं फट् स्वाहा।।21।।
ॐ संहारिणि!
स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् संहारय संहारय हूं फट् स्वाहा।।22।।
ॐ रौद्रि!
स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् रौद्रय रौद्रय हूं फट् स्वाहा।।23।।
ॐ भ्रामिणि!
स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् भ्रामय भ्रामय हूं फट् स्वाहा।।24।।
ॐ जृम्भिणि!
स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् जृम्भय जृम्भय हूं फट् स्वाहा।।25।।
ॐ द्राविणि।
स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् द्रावय द्रावय हूं फट् स्वाहा।।26।।
ॐ क्षोभिणि।
स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् क्षोभय क्षोभय हूं फट् स्वाहा।।27।।
ॐ मोहिनि।
स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् मोहय मोहय हूं फट् स्वाहा।।28।।
ॐ स्तम्भिनि।
स्फ्रें स्फ्रें मम स-परिवारकस्य शत्रुन् स्तम्भय स्तम्भय हूं फट् स्वाहा।।29।।
।फल-श्रुति
श्रृणोति य इमां विद्यां, श्रृणोति च सदाऽपि ताम्।
यावत् कृत्यादि-शत्रूणां,- तत्क्षणादेव नश्यति।।
मारणं शत्रु-वर्गाणां, रक्षणाय चात्म-परम्।
आयुर्वृद्धिर्यशो– ृद्धिस्तेजो-वृद्- िस्तथैव च।।
कुबेर इव वित्ताढ्यः, सर्व-सौख्यमवाप्नु- ात्। वाय्वादीनामुपशमं, विषम-ज्वर-नाशनम्।।-
पर-वित्त-हरा सा वै, पर-प्राण-हरा तथा।
पर-क्षोभादिक-करा, तथा सम्पत्-करा शुभा।।
स्मृति-मात्रेण देवेशि। शत्रु-वर्गाः लयं गताः।
इदं सत्यमिदं सत्यं, दुर्लभा देवतैरपि।।
शठाय पर-शिष्याय, न प्रकाश्या कदाचन।
पुत्राय भक्ति-युक्ताय, स्व-शिष्याय तपस्विने।।
प्रदातव्या महा-विद्या, चात्म-वर्ग-प्रदायत- ः।
विना ध्यानैर्विना जापैर्वना पूजा-विधानतः।।
विना षोढा विना ज्ञानैर्मोक्ष-सिद- धिः प्रजायते।
पर-नारी-हरा विद्या, पर-रुप-हरा तथा।।
वायु-चन्द्र-स्तम्भ- -करा, मैथुनानन्द-संयुता-
त्रि-सन्ध्यमेक-सन्- ध्यं वा, यः पठेद्भक्तितः सदा।।
सत्यं वदामि देवेशि। मम कोटि-समो भवेत्।
क्रोधाद्देव-गणाः सर्वे, लयं यास्यन्ति निश्चितम्।।
किं पुनर्मानवा देवि। भूत-प्रेतादयो मृताः।
विपरीत-समा विद्या, न भूता न भविष्यति।।
पठनान्ते पर-ब्रह्म-विद्यां स-भास्करां तथा।
मातृकांपुटितं देवि, दशधा प्रजपेत् सुधीः।।
वेदादि-पुटिता देवि। मातृकाऽनन्त-रुपिण- ।
तया हि पुटितां विद्यां, प्रजपेत् साधकोत्तमः।।
मनो जित्वा जपेल्लोकं, भोग रोगं तथा यजेत्।
दीनतां हीनतां जित्वा, कामिनी निर्वाण-पद्धतिम्।-पर-ब्रह्म-विद्या-
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ
ऋँ ॠँ लृँ ॡँ एँ ऐँ ओँ औँ अँ अः।
कँ खँ गँ घँ ङँ।
चँ छँ जँ झँ ञँ।
टँ ठँ डँ ढँ णँ।
तँ थँ दँ धँ नँ।
पँ फँ बँ भँ मँ।
यँ रँ लँ वँ।
शँ षँ सँ हँ ळँ क्षँ।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ विपरीत-पर-ब्रह्मम-प्रत्यंगिरे
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ,
अँ आँ इँ ईँ उँ ऊँ ऋँ ॠँ लृँ ॡँ एँ ऐँ ओँ औँ अँ अः।
कँ खँ गँ घँ ङँ। चँ छँ जँ झँ ञँ। टँ ठँ डँ ढँ णँ।
तँ थँ दँ धँ नँ। पँ फँ बँ भँ मँ।
यँ रँ लँ वँ। शँ षँ सँ हँ ळँ क्षँ।
ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ ॐ।
प्रार्थना:
ॐ विपरीत-पर-ब्रह्म-मा-प्रत्यंगिरे।
स-परिवारकस्य सर्वेभ्यः सर्वतः सर्वदा रक्षां कुरु कुरु, मरण-भयमपनयापनय, त्रि-जगतां बल-रुप-वित्तायुर्म-से-परिवारकस्य देहि देहि,
दापय दापय, साधकत्वं प्रभुत्वं च सततं देहि देहि, विश्व-रुपे। धनं पुत्रान् देहि देहि, मां स-परिवारकं, मां पश्यन्तु।
देहिनः सर्वे हिंसकाः हि प्रलयं यान्तु,
मम स-परिवारकस्य यावच्छत्रूणां बल-बुद्धि-हानिं कुरु कुरु, तान् स-सहायान् सेष्ट-देवान् संहारय संहारय,
तेषां मन्त्र-यन्त्र-तन्त्र-लोकान् प्राणान् हर हर, हारय हारय, स्वाभिचारमपनयापन- , ब्रह्मास्त्रादीन- नाशय नाशय,
हूं हूं स्फ्रें स्फ्रें ठः ठः ठः फट् फट् स्वाहा।।
*डॉ रमेश खन्ना*
*वरिष्ठ पत्रकार*
*हरीद्वार (उत्तराखंड)*