religion,धर्म-कर्म और दर्शन -110

religion and philosophy- 110

 

🙏🌼*21 जुलाई गुरु पूर्णिमा पर्व विशेष*🌼🙏

ॐ श्री गुरूवे नमः
ॐ नमः शिवाय
*ॐ ह्रीं बगुलामुखी दैव्यै नमः*

कार्यविमुखता

जो लोग शास्त्रों के विधि-विधानओं को जानते हैं लेकिन आलस्य या कार्य विमुखता व इनका पालन नहीं करते हैं, प्रकृति के गुणों द्वारा शासित होते हैं अपने सतोगुण रजोगुण तमोगुण पूर्वकर्मों के अनुसार एक विशेष प्रकार का स्वभाव प्राप्त करते हैं।

विभिन्न गुणो के साथ जीव की संगति शाश्वत चलती रहती है चुकी जीव प्रकृति के संसर्ग में रहता है। अतएव वह प्रकृति के गुणों के अनुसार ही विभिन्न प्रकार की मनोवृतिया अर्जित करता है।लेकिन यदि कोई प्रमाणिक गुरु की संगति करता है और उसके तथा शास्त्रों के विधि विधानो का पालन करता है तो उसकी यह मनोवृति बदल जाती है। वह क्रमश अपनी स्थिति तमोगुण से सतोगुण या रजोगुण से सतोगुण में परिवर्तित कर सकता है कहने का तात्पर्य यह है की प्रकृति के किसी विशेष गुण में अंधविश्वास करने से व्यक्ति सिद्धि प्राप्त नहीं कर सकता उसे प्रमाणिक गुरु की आवश्यकता होती है ।

गुरु की संगति में रहकर बुद्धि पूर्वक बातों पर विचार करना होता है तभी मैं उच्चतर गुणों की स्थिति को प्राप्त हो सकता है। प्रत्येक व्यक्ति में चाहे वह जैसा भी हो एक विशेष प्रकार की श्रद्धा पाई जाती है लेकिन उसके द्वारा अर्जित स्वभाव के अनुसार उसकी श्रद्धा उत्तम सतोगुण रजोगुण अथवा तामसी कहलाती है।इस प्रकार अपनी विशेष श्रद्धा के अनुसार ही वह कतिपय है लोगों से संगति करता है अब वास्तविक लक्ष्य तो यह है।गीता में यह भी कहा गया है कि प्रत्येक जीव परमेश्वर का अंश है ।अतएव वह मुलतः इन समस्त गुणों से परे होता है लेकिन जब वह भगवान के साथ अपने संबंध को भूल जाता है और बद्ध जीवन मैं भौतिक प्रकृति के संसद में आता है। तुम्हें विभिन्न प्रकार की प्रकृति के साथ संगति करके अपना स्थान बनाता है।

इसी प्रकार से प्राप्त कृत्रिम श्रद्धा और अस्तित्व मात्र भौतिक होते हैं भले ही कोई किसी धारणा या देहात्मबोध द्वारा प्रेरित हो लेकिन मूलत मैं निर्गुण या दिव्य होता है। अतएव ईश्वर के साथ अपना संबंध फिर से प्राप्त करने के लिए उसे भौतिक कल्मष से शुद्ध होना पड़ता है।यही एकमात्र मार्ग है निर्भय होकर ईश्वर यह भावनामृत में लौटने का! यदि कोई ईश्वरीय भावनामृत निश्चित हो तो उसका सिद्धि प्राप्त करने के लिए वह मार्ग प्रशस्त हो जाता है। यदि वह आत्मसाक्षात्कार के इस पद को ग्रहण नहीं करता तो वह निश्चित रूप से प्रकृति के गुणों के साथ बह जाता है।

श्रद्धा मूलतः सतोगुण से उत्पन्न होती है मनुष्य की श्रद्धा किसी देवता किसी कृत्रिम ईश्वर या मनोधर्म में भी हो सकती है। लेकिन प्रबल श्रद्धा सात्विक कार्यों से उत्पन्न होती है भौतिक जीवन ने कोई भी कार्य पूर्णता शुद्ध नहीं रह होता। वे सब मिश्रित होते हैं।
विशुद्ध सात्विक नहीं होते शुद्ध सत्त्व दिव्या होता है शुद्ध सत्त्व में रहकर मनुष्य भगवान के वास्तविक स्वभाव को समझ सकता है। जब तक श्रद्धा पूर्णतया सात्विक नहीं होती तब तक वह प्रकृति के किसी भी गुणों से दूषित हो सकती है।

प्रकृति के दूषित गुण ह्रदय तक फैल जाते हैं, अतएव किसी विशेष गुण के संपर्क में रहकर भरते जिस स्थिति में होता है उसी के अनुसार श्रद्धा स्थापित होती है यह समझना चाहिए कि यदि किसी के ह्रदय सतोगुण से स्थित है तो उसकी श्रद्धा भी सतोगुण ही है।यदि उसका ह्रदय रजोगुण में स्थित है तो उसकी श्रद्धा भी रजोगुण ही है यदि उसका ह्रदय तमोगुण में स्थित है तो उसकी श्रद्धा भी तमोगुण ही ही होती है। इस प्रकार हमें संसार से विभिन्न प्रकार की श्रद्धाएँ मिलती हैं। और विभिन्न प्रकार की श्रद्धाओं के अनुसार विभिन्न प्रकार के धर्म होते हैं धार्मिक श्रद्धा का असली सिद्धांत सतोगुण में स्थित होता है।लेकिन चुकि ह्रदय कलुषित रहता है। अतएव इस संसार में विभिन्न प्रकार के धार्मिक सिद्धांत पाए जाते हैं सिद्धांत की विभिन्नता के कारण ही पूजा भी भिन्न भिन्न प्रकार से होती है।

सूक्ष्म लोक में शिक्षण सूक्ष्म लोक में मनुष्य की विद्या, बुद्धि, विचार और अवधारणाएं पृथ्वी लोक की ही तरह होती हैं बल्कि पढने-लिखने सोचने-समझने की शक्ति और अधिक बढ़ जाती है। यदि वह पढना चाहे तो सूक्ष्मलोक में वह आसानी से पढ़-समझ सकता है बल्कि जो जिस योग्य है उसे वहां बहुत कुछ पढ़ाया-सिखाया जाता है। यही कारण है कि लोग जन्म से ही भिन्न-भिन्न संस्कार, भिन्न-भिन्न रुचियों को लेकर जन्म लेते हैं। कोई जन्म लेने के कुछ समय बाद ही सन्यासी बनने लगता है तो कोई डकैत। कोई गणित में गति रखता है तो कोई साहित्य में। कोई कला में पारंगत होता है तो कोई वेदान्त में। यह सब यूँ ही नहीं होता। इसके पीछे सूक्ष्मलोक के शिक्षण और संस्कार होते हैं जो पूर्वजन्म के शिक्षण-संस्कार और अभिरुचियों को आधार बना कर गढ़े जाते हैं।

हम जो कुछ बोते हैं– वही काटते हैं और कर्म से किसी भी प्रकार से मुक्ति नहीं। हम पृथ्वी के किसी कोने में जा छिपें, कर्म हमारा पीछा नहीं छोड़ेगा। जीवन ही कर्म है। जन्म कर्म का आरम्भ है और मृत्यु कर्म का अंत। जीवन में कर्म को रोकना असंभव है। जीने की प्रत्येक क्रिया कर्म है। श्वास भी लेना कर्म है। उठना, बैठना, सोचना, विचारना भी कर्म है। जीना कर्म की ही प्रक्रिया है। जो लोग यह सोचते हैं कि वे जीते-जी कर्म का त्याग कर दें तो वे केवल असंभव बातें सोच रहे हैं। यह संभव नहीं हो सकता है।

गृहस्थ एक प्रकार से कर्म करता है और सन्यासी दूसरे प्रकार से कर्म करता है। गृहस्थ आसक्त भाव से कर्म करता है और सन्यासी अनासक्त भाव से कर्म करता है। दोनों ही कर्म करते हैं। लेकिन दोनों के कर्मों में भेद है। आसक्त भाव से कर्म करने वाले को कर्मफल मिलता है जबकि अनासक्त भाव से कर्म करने वाले को कर्मफल नहीं मिलता है। उसको कर्मफल मिलने का एक मात्र कारण है –उसकी कर्मफल के प्रति आसक्ति।

हम जैसे जी रहे हैं, वैसे ही जीते रहें। वैसे ही करते रहें। कर्म को बदलने की आवश्यकता नहीं। आवश्यकता है केवल कर्ता को बदलने की। वास्तविक प्रश्न यह नहीं है कि हम क्या कर रहे और क्या नहीं। वास्तविक प्रश्न यह है कि भीतर हम क्या हैं? यदि भीतर हम गलत हैं तो हम जो भी करेंगे, वह गलत ही होगा, दोषपूर्ण होगा। यदि हम भीतर सही हैं तो हम जो भी करेंगे ,वह निर्दोष होगा, उसका फल भी सही होगा।

वास्तविक कर्म उसी समय शुरू होता है जिस दिन कर्म दूसरे के लिए होता है। अपने लिए ही जीना पर्याप्त नहीं है। जो केवल अपने लिए जीता है, उसका जीवन एक बोझ है। लेकिन जब व्यक्ति अपने लिए सब प्राप्त कर चुकता है, सब जान चुका होता है फिर भी जीता है, तो उसके लिए पृथ्वी का गुरुत्वाकर्षण समाप्त हो जाता है। वह बिना भार के, बिना बोझ के जीता है। इस साधारण जीवन में वे ही क्षण आनंद के हैं जब हम थोड़ी देर के लिए दूसरे के लिए जीते हैं। माँ जब अपने बेटे के लिए जी लेती है तो आनंद से भर जाती है। पिता जब बेटे के लिए, मित्र जब मित्र के लिए जीता है तो वह आनंद में डूब जाता है। क्षणभर भी यदि हम दूसरे के लिए जी लेते हैं तो ही हमारे जीवन में आनंद-ही-आनंद

*डॉ रमेश खन्ना*
*वरिष्ठ पत्रकार*
*हरीद्वार (उत्तराखंड)*

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