religion,धर्म-कर्म और दर्शन -112
religion and philosophy- 112
🌷🌼चातुर्मास एकान्तिक साधना के लिए है धूमधड़ाके और शोरशराबे के लिए नहीं 🌼🌷
मैंने अपने अध्ययन काल में श्री गुरुकृपा से इस विषय पर जितना जाना उसके अनुसार चातुर्मास का अर्थ है कि वे चार माह जब व्यक्ति सांसारिक प्रवृत्तियों और परिवेशीय आचरणों से दूर रहकर एकान्त में बैठ कर साधना और चिंतन-मनन करता हुए अपने आपको साधनामय एवं दिव्य बनाए और अकेले में आत्मचिन्तन करता हुआ अपने भीतर जाए।
साल भर संसार के विषयों और सांसारिक लोगों के बीच रमण करते हुए ऊर्जा का जो क्षरण होता है उसकी भरपाई और ईश्वर / अपने इष्ट के सान्निध्य की अनुभूति कराने के लिए है चातुर्मास। पुरातन काल /पुराने ज़माने में वर्षा के इन चार माहों में आवागमन बाधित हो जाता था और देवशयन के बाद सांसारिक एवं कामनापूर्ति से जुड़े कर्मों पर करीब-करीब विराम लग जाता था और ऎसे में संत-महात्मा और ऋषि-मुनि एक निश्चित एकान्त स्थान पर बैठकर चार माह तक स्वाध्याय और साधना करते हुए अपने व्यक्तित्व और ऊर्जाओं को नई ऊँचाइयां प्रदान करते थे।
ये चार माह इनके लिए कहीं सहज और कहीं कठोर साधनाओं के माह हुआ करते थे। इसी प्रकार चातुर्मास में आम लोगों के लिए भी स्वाध्याय और साधना का महत्त्व हुआ करता था।
चातुर्मास को मोटे अर्थ में लें तो वे चार माह जिनमें उन सारी वृत्तियों पर आंशिक अथवा पूर्ण विराम लग जाना चाहिए जो शेष आठ माह हम किया करते हैं या होती हैं।
हमारे हिन्दू धर्म की सभी शाखाओं ( संप्रदाय ) के संतों, मुनियों, मठाधीशों और बड़े-बड़े लोकप्रिय, पूज्य, महापूज्य, अतिपूज्य, दृश्यमान तथा गोपनीय साधकों और सिद्धों के लिए यह चातुर्मास बड़े महत्त्व के होते हैं।
इनके लिए यह ऊर्जा संरक्षण और भण्डारण का समय होता है जब ये जन से दूर किसी निर्जन या एकान्त में भीड़ भाड़ से परे रहकर शांति और सुकून के साथ भजन-पूजन और स्वाध्याय, चिंतन, मनन एवं साधनाओं को कर सकें।
इसीलिए इन लोगों को चारों माह एक ही स्थान पर रहने की पाबंदी थी और इन चार माहों में वे एक ही स्थान पर डेरा डालकर तपस्या करते थे।
यह बंधन इनके आत्मिक कल्याण के लिए साल में एक बार जरूरी हुआ करता था। इसके साथ ही संसार से दूर रहने के लिए कई सारी पाबंदियां होती थीं। जो काम आठ माह में होते थे उन कामों से दूरी बनाए रखी जाती थी।
यानि कि विशुद्ध रूप से वैयक्तिक और एकान्तिक साधना का मार्ग है चातुर्मास। हमारे आदि ऋषि-मुनियों ने चातुर्मास को लेकर कई नियम बनाए हैं, कई पाबंदियां लगायी हैं अपितु आजकल के संत-महात्मा और मठाधीश इन नियमों का कितना पालन कर रहे हैं यह हम सभीको पता है।
समाज को मार्गदर्शन देने वाले और अनुशासन तथा मर्यादा का पाठ पढ़ाने में सिद्धहस्त इन लोगों का जीवन और चातुर्मास कितना मर्यादित रह गया है, इसे शायद यहाँ बताने की आवश्यकता नहीं है और इसे ये लोग भी जानते हैं और वे लोग भी जो किसी स्वार्थ या लालच में अथवा भोलेपन में इनके चेले-चपाटे ,भक्त या अनुयायी कहे जाते हैं।
सदगुरुदेव शरणम
*डॉ रमेश खन्ना*
*वरिष्ठ पत्रकार*
*हरीद्वार (उत्तराखंड)*