religion,धर्म-कर्म और दर्शन -118
religion and philosophy- 118
🏵️तंत्र का सत्यसार है नियंत्रण,आगम अथवा आवाहन🏵️
आज तन्त्र पर विचार करने की आवश्यकता है क्योंकि तन्त्र के विषय मे बहुत सी भ्रामक बाते प्रचलित है तन्त्र शब्द (चुरादिधातु उभयलिंगी-तन्त्रयति ते तन्त्रितः) इसका अर्थ है नियंत्रण रखना प्रशासन करना – प्रजाः प्रजाः स्वा इव तन्त्रयित्वा ।
तन्त्र का ही दूसरा नाम आगम है ( आ+गम्+घञ्) जिसका अर्थ है आना पहुंचाना दर्शन देना जैसा कि कहा गया है आगतं शिववक्त्रेभ्यो गतं च गिरिजाश्रुतौ । मतं च वासुदेवेन तस्मादागम उच्यते ।।
वेद के छह अंगो मे कल्पान्तर्गत आगम का उल्लेख किया गया है । कल्पश्चतुर्विधः प्रोक्ता आगमो डामरस्तथा । यामलश्च तथा तन्त्रं तेषां भेदाः पृथक् पृथक् ।। कामिक आगम के अनुसार भगवान् सदाशिव के पाँच मुखों से पाँच प्रकार की तान्त्रिक धारा का प्रादुर्भाव हुआ
1=पूर्वाम्नाय से निःसृत धारा प्राणियों की विष से रक्षा के उपायों का वर्णन करती है अतः इसका नाम गारुणतन्त्र है ।
2= दक्षिणाम्नाय शत्रुदमन विषयक प्रवाह को भैरवतन्त्र के नाम से जाना जाता है।
3= पश्चिमाम्नाय दुष्ट आत्माओं अर्थात भूत प्रेत पिशाच राक्षस बेताल आदि से रक्षा की प्रक्रिया को बतलाता है भूततन्त्र कहते है ।
4= उत्तराम्नाय इसमे सबको सम्मोहित करने का वर्णन है इसलिए इसको सम्मोहनतन्त्र कहते है ।
5= ऊर्ध्वाम्नाय से निःसृत तन्त्र का उद्देश्य जीव को बन्धन मुक्त करने के लिए है इसलिए इसको मोक्षतन्त्र कहते है ।
आम्नायोपरान्त हम विचार करेंगे वाम मार्ग के प्रमाणिकताक के विषय मे शास्त्र का कथन क्या है, मेरु तन्त्र मे भगवान शिव कहते है-अहं जानामि सम्पूर्णं पादोनं सनकादयः । अर्धं चापि वशिष्ठाद्याः शक्राद्याः पादसम्मितम् ।जानन्तिनाथाः षष्ठमंशं कोट्यंशमितरे जनाः ।।
प्रमुख कौल साधकों के विषय मे भी स्पष्ट रूप से जिसका प्रमाण वाल्मीकि रामायण मे देखा जा सकता है – क्षेत्रपालो हनुमांश्च दक्षो गरुण एव च
प्रह्लादः शुकश्चैव रामो रावण एव च ।। नारदश्च महावीराः कथिता कुलसाधकाः । महाविद्याप्रसादेन स्व स्वकर्मसमान्विति ।।
यह नव लोग वाल्मीकि रामायण के अनुसार परम कौल साधक थे। मेरुतन्त्र के अनुसार यादव आदि अनेक लोग वाम मार्ग के अनुपालन के द्वारा मुक्त हुए थे – बहवो वृष्णिकाद्याश्च वाममार्गेण मोचिता । इस प्रकार अनेक ग्रन्थो मे कौल के विषय मे बहुतायत प्रमाण देखने को मिलते हैं।
हमारे यँहा अनादि काल से उपासना की परम्परा चली आ रही है उपासनाक्रम को मुख्यतः चार भागो प्रतिपादित किया गया है परा, पश्यन्ती, मध्यमा, और वैखरी इन्ही उपासनाक्रम मे समस्त आचार अनुस्युत है संस्कृत व्याकरण जानना अच्छा है परन्तु जो लोग व्याकरण नही जानते उनकी उपेक्षा करना निन्दनीय है वेदान्ती लोग कौल परम्परा को सम्मान नही देते है क्योंकि वहाँ ज्ञान प्रधान है किन्तु कौल साधना मे ज्ञान के साथ कर्म का महत्व है जैसे आद्यशंकराचार्य का ही उदाहरण लेकर विचार करें जिनके भाष्य एवं स्तोत्र सभी परम्परा के उपासक प्रयोग किया करते है परन्तु यह कब हुआ जब उन्होंने कर्मोपासना मे प्रवेश किया इसका प्रत्यक्ष उदाहरण श्रीविद्या उपासना है, समर्पित भाव से किया गया कर्म वाणीविलास की तुलना मे अधिक श्रेष्ठ है तोटकाचार्य जी का जीवंत प्रमाण हमारे समक्ष है और कौल साधको मे अनेकानेक साधक गुप्त या प्रकट रूप से आज भी विद्यमान है, आग्रह यह है कि गाय का दूध और गंगाजल दोनो ही पवित्र है किन्तु दोनो को एक दूसरे मे मिला देने पर दोनो का आस्तित्व नष्ट हो जाता है ।
*डॉ रमेश खन्ना*
*वरिष्ठ पत्रकार*
*हरीद्वार (उत्तराखंड)*