religion,धर्म-कर्म और दर्शन -120
religion and philosophy- 120
🌺क्यों कहा गया है ब्रह्म विद्या को श्रीविद्या ?🌺
साहित्य में एक सुवाक्य है : “आदौ सकारः सुखदः” अर्थात् जहा प्रारंभ में स – कार होता है, वह सुखकारी होता है । श्री वर्णसंधि में प्रारंभ में “स” वर्ण है, जो सुखाकारी का उद्घोषक है, मध्य अर्थात शब्द के केंद्र में “ई” वर्ण है, जो परमेश्वरी की शक्ति का सूचक है और अंत में “र” वर्ण है, जो अग्नि का सूचक है । रं बीज अग्नि तत्त्व को दर्शाता है । सृष्टि के सर्जन, पालन और संहार तीनों कार्यों के केंद्र में परम शक्ति की शक्ति में अग्नि तत्त्व ही होता है । भू अंतर्गत गर्मी ही किसी भी बीज को इच्छित वातावरण प्रदान करके उसमे अंकुर प्रस्फुटित करती है । हमारे अंदर रही अग्नि ही हमारे द्वारा लिए गए अन्न का पाचन करती है । ज्वालामुखी या समुद्र के तले रही अग्नि ही समयांतर पर संहारजनक परिस्थितियां उत्पन्न करती है । इसी लिए यह शब्द में यह तीनों वर्णों का समन्वय किया गया है ।
श्री के मूलतः दो अर्थ है : 1) बाह्य लक्ष्मी 2) आभ्यंतर लक्ष्मी
बाह्य लक्ष्मी अर्थात भौतिक संपदा, धन, वैभव, चलनी सिक्के एवं नोट, नगद, खेती, वाहन सुख इत्यादि
आभ्यांतर लक्ष्मी अर्थात दर्शन, चिंतन, मनन और निदिद्यासन
संकलन : श्रीचक्र एवं श्रीविद्या साधना रहस्य ग्रंथ
Dr.Ramesh Khanna.