religion,धर्म-कर्म और दर्शन -58

religion and philosophy- 58

🏵️तीर्थस्नान से कोई फायदा नहीं,यदि मन की मैल न टूटे 🏵️

शास्त्र के अनुसार तीर्थ- स्नान से फायदा नहीं, यदि मन की मैल न टूटे। हमारे सनातनी शौचाशौच- विज्ञान में मन और शरीर– दोनों को समान गुरुत्व आरोप किया गया है। अच्छे साबुन से नहलाकर साफ पानी में नहाने से शरीर की गन्दगी तो साफ हो जाता है, परन्तु मन की मैल को साफ करने के लिए और दूसरा कुछ नहीं, सिर्फ अध्यात्म- ज्ञान से नहा कर आचरण और उच्चारण को शुद्ध रखना जरूरी है।।

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राजा हो या रंक, मनुष्यों का जीवन जन्म से ही मुसीबतों की छाया में घिरे है। आंतरिक प्रयास करने से षडरिपुओं को सदाचार और सद्विचार के अस्त्र में प्रतिहत किया जा सकता है; परन्तु जीवन- युद्ध में जीत हासिल के लिए भी आधिभौतिक और आधिदैविक स्रोत से उपज मुसीबतों से लड़ना पड़ता है। इसलिए, ऐसी जन्मजात संकट की दलदल को पार होने के लिए इंसान को सद्गुरु- कृपा की सुरक्षा- कवच जरूरी होती है। इस निर्विकार सचाई को हृदय से कोई माने या अहंकारवशः इनकार करे– इससे सचाई को बिल्कुल फर्क नही पड़ता, क्योंकि “गुरुर्ब्रह्मा गुरुर्विष्णु: गुरुर्देवो महेश्वरः गुरुसाक्षात् परब्रह्म तस्मै श्री गुरुवे नमः” — यही शाश्वत सचाई से अलग और कुछ विकल्प नहीं है।।

जीवन- युद्ध में जीत हासिल के लिए श्रीमद देवी भागवत में कुछ जीवन- मंत्र लिखा गया है, जिसे देवब्रतीय भाष्य के साथ नीचे प्रस्तुत है; यथा–

“दैवाधीनौ महाराज लोके जयपराजयौ।
अल्पार्थाय महाद्दु:खं बुद्धिमान्न प्रकल्पयेत।।12।।
सुखं दु:खं तथैवायुर्जीवितं मरणं नृणाम।
काले भवति संप्राप्ते सर्वथा दैवनिर्मितम।।31।।
तथाहमति कालस्य वशगः सर्वथाधुना।
नाशं जयं वा गंतास्मि स्वधर्मपरिपालनात।।33।।
उद्यमेन विना कामं न सिध्यन्ति मनोरथाः।
कातरा एव जल्पन्ति यद्भाव्यं तद्भविष्यति।।37।।
देशं कालञ्च विज्ञाय स्वबलं शत्रुजं बलम।
कृतं कार्यं भवत्येव बृहस्पतिवचो यथा।।43।।”

भावार्थ है– “जय- पराजय, हानि- लाभ, सुख- दुख, जीवन- मरण, सफलता- विफलता सब दैव के अधीन है। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने प्रयोजन के अनुसार ही उचित कर्म करे; किसी भी अल्प प्रयोजन के लिए अत्यधिक कष्टकारी कर्मो का अवलम्बन न करे। दैव के अधीन होने के कारण, योगप्रद समय आने पर दैव की प्रेरणा से दैव के द्वारा ही मनुष्यो को सुख- दुख, लाभ- हानि, जय- पराजय, जीवन- मरण से बचाव और निवारण के लिए सम्यक कर्म करने की प्रेरणा मिलती है। जो मनुष्य सम्यक रूप से देश- काल- शक्ति- सामर्थ्य- बुद्धि- विवेकानुसार स्वधर्म मार्ग का अवलंबन कर अपने कर्तव्य- कर्मो का निर्वहन, पालन और आचरण करते है– देर से ही सही किन्तु उन्हें सफलता की प्राप्ति निश्चित। केवल मन में विचार करने भर से कभी भी कार्य की सिद्धि नही होती है। देवगुरु बृहस्पति जी कहते है कि जो मनुष्य देश- काल की परिस्थितियों को दृष्टि में रखते हुए अपनी पूरी शक्ति- सामर्थ्य- बुद्धि- विवेक के साथ तन्मय होकर सम्यक रूप से स्वधर्म का पालन करते हुए अपने कर्तव्य- कर्मों का निर्वाह करते है, आवश्यक रूप से उन्हें ही सफलता प्राप्त होती है।।”
(श्रीमद्देवीभागवत पुराण स्कंध-5, अध्याय- 27, श्लोक- 12, 31, 33, 37, 43।।)

— अब खुद विचार कीजिये कि, असल में काशी- गया- हरद्वार- त्रिवेणी- महोदधि आदि पवित्र तीर्थो में स्नान कर, मातृकृपा से पुण्यरूपिणी मोक्ष प्राप्ति की पीछे परिष्कृत मन के साथ, इसके आधार स्वरूप मायारहित एक शरीररूपी यंत्र की आवश्यकता है कि नहीं !!

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