religion,धर्म-कर्म और दर्शन -67

religion and philosophy- 67

🏵️*ध्यान और साधक*🏵️

*ध्यान की अवस्था में आपके चारों ओर कुछ भी न हो, किसी भी प्रकार की स्मृति न हो, किसी भी प्रकार की कल्पना न हो।

ऐसी अवस्था में न आकाश होगा और न होगा समय और जिस क्षण कुछ भी नहीं होता, सभी का अभाव हो जाता है, वही अवस्था है–शून्यावस्था। शून्यावस्था में सब कुछ मिट जाता है। ऐसे ही व्यक्ति को पूर्ण ध्यानस्थ कहा जाता है। भूत, भविष्य, वर्तमान, कल्पना, स्मृति से शून्य और आकाश तथा समय में लीन हो जाना ध्यान की चरमावस्था है।

यही है निर्विचार, मौन समाधि की अवस्था को उपलव्ध हो जाना।*
*ध्यान चेतना की अन्तर्यात्रा है जिसमें चेतना बोधपूर्वक बाहर से भीतर की ओर, परिधि से केंद्र की ओर, दृश्य से दृष्टा की ओर गमन करती है। ध्यान को साधने से चेतना निर्बन्ध और निर्ग्रन्थि, अखण्ड, असंग और असीम अवस्था को उपलब्ध होती है। तात्पर्य यह कि ध्यान, समाधि और अनन्त आत्मबोध का परमात्मा का द्वार बनता है। योग के अनुसार ध्यान से अधिक कोई मूल्यवान वस्तु नहीं है। आत्मा की जितनी अवस्थाएं हैं, वे ध्यान द्वारा ही उपलब्ध हो सकती हैं।

ध्यान कठिन नहीं है जितना कि लोग सोचते हैं। जैसे हमारे घर के सामने फूल खिले हों और हमने दरवाजा बन्द कर रखा हो। हम उसे न खोलें। हमारे सामने खजाना हो और हम आँखें बन्द किये बैठे हों। बस यही कठिनाई है। हम दरवाजा खोलेंगे, तभी तो हमें फूल दिखाई देंगे। हम आँखें खोलेंगे तभी हम खजाना देख सकेंगे। यही बात ध्यान के सम्बन्ध में भी समझना चाहिए। ध्यान प्रत्येक व्यक्ति की क्षमता है।

क्षमता ही नहीं, प्रत्येक व्यक्ति का अधिकार है।* *परमात्मा ध्यान के साथ हर व्यक्ति को जन्म देता है। इसलिए ध्यान से परिचित होना कठिन नहीं। प्रत्येक व्यक्ति के लिए ध्यान का मार्ग खुला है। स्वयं ‘बीज’ को अपनी संभावना का ज्ञान नहीं होता।* *वह यह नहीं जानता कि उसके भीतर विशाल वृक्ष छिपा है।ऐसा ही मनुष्य है। स्वयं उसे पता नहीं है कि वह वास्तव में क्या है और क्या हो सकता है ? बीज तो अपने भीतर झांक नहीं सकता। लेकिन मनुष्य तो झांक सकता है और इसी भीतर झांकने का नाम ध्यान है।*

*ध्यान में उतरें–गहरे और गहरे। जब पूरी तरह गहराई में उतर जायेंगे तो उस गहनतम गहराई के दर्पण में* *संभावनाओं का प्रतिबिम्ब उपलब्ध हो जाता है और जो हो सकता है, वह होना शुरू हो जाता है। शक्ति, समय और संकल्प सभी ध्यान को समर्पित हो जाता है।

ध्यान स्वयं का स्वयं से परिचय कराता है। फिर एक समय ऐसा आता है कि व्यक्ति चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते, पूजा-प्रार्थना-अर्चना करते भी ध्यान में डूबा रह सकता है। ज्ञान भी ध्यान, भक्ति भी ध्यान, कर्म भी ध्यान और सन्यास भी ध्यान। ध्यान का अर्थ है–चित्त का मौन, निर्विचार,* *शुद्धावस्था को प्राप्त हो जाना। ध्यान आप किस विधि से उपलब्ध हो सकते हैं–यह महत्वपूर्ण नहीं है। बस, ध्यान को उपलब्ध होना ही महत्वपूर्ण है।*

*ध्यान में प्रवेश करने के लिए अनेक रास्ते हैं। सभी रास्ते एकाग्रता के गलियारे से होकर गुजरते हैं। अर्थात्– ध्यान करने में मन की, चित्त की, बुद्धि की एकाग्रता की आवश्यकता पड़ती है। मन को एकाग्र करने के लिए कई उपाय हैं। प्रारम्भ में कोई किसी प्रतिमा को नेत्रों के समक्ष रखकर उस पर ध्यान एकाग्र करते हैं।

कोई अग्निशिखा (ज्योति) का सहारा लेकर ध्यान केंद्रित करते हैं। ऐसी किसी भी विधि से जब ध्यान में एकाग्रता घटित होने लगे तो व्यक्ति को और आगे बढ़ना चाहिए। अपनी ही साँस को आते-जाते देखना भी एक अच्छा प्रकार है ध्यान को केंद्रित करने का।

कुछ लोग मूलाधार पर ध्यान करने को बताते हैं तो कुछ लोग ह्रदय पर। कुछ लोग भ्रूमध्य पर जहाँ आज्ञाचक्र है, वहां पर ध्यान एकाग्र करते हैं तो कुछ लोग हैं जो नाभि को केंद्र बिन्दु मानकर ध्यान की बात करते हैं। कुछ लोग मंत्र-जप करते हुए मन्त्र की देवी या देवता के विग्रह पर ध्यान करने को कहते है।

कोई ॐ का जप करते हुए ध्यान करते हैं।*
*मेरे अनुभव के अनुसार सबसे पहले हमें दो बातों पर ध्यान केंद्रित कर लेना चाहिए। हमारे परिवार में, कुल में वह कौन देव या देवी हैं जिन्हें इष्ट माना गया है। बिना इष्ट को पकडे कोई भी ध्यान सफल नहीं हो सकता। इष्ट को पूजना, इष्ट को संतुष्ट रखना सर्वप्रथम आवश्यक है ध्यानी के लिए।

इसके बाद दूसरी सबसे बड़ी और महत्वपूर्ण बात है कि व्यक्ति के ग्रह-दशा पर विचार कर यह देखना चाहिए कि किस शक्ति या किस तत्व की साधना वह ध्यान के माध्यम से करे। जो तत्व या जो शक्ति उसके सबसे अनुकूल होगी, उसे साधने में उसे शीघ्र सफलता मिलने की संभावना होती है। विपरीत शक्ति या तत्व की साधना करने में सिवाय विफलता के और कुछ नहीं मिल सकता।*
*अध्यात्म का सम्बन्ध जहां तक है, वह धर्म के मर्म से सम्बंधित है।

धर्म के मर्म को इसलिए कहा है क्योंकि अधिकांश लोग धर्म को ही नहीं समझते तो धर्म के मर्म की बात तो छोड़ ही दीजिये। गेरुआ वस्त्र पहनकर, गले में माला लटकाकर, मस्तक पर बड़ा-सा त्रिपुण्ड लगाकर आश्रम में निवास करने वाले व्यक्ति के जीवन को धार्मिक जीवन कदापि नहीं कहा जा सकता। धार्मिक वह है जिसने धर्म के मर्म को आत्मसात् कर लिया है अपने अन्तराल में, धर्म के मापदंडों को जीवन में उतार लिया है।

सारा व्यक्तित्व उसका धर्ममय हो गया है। उसके लिए यह जीवन और जगत उस परम पिता परमेश्वर का लीला-स्थल बन गया है। वह व्यक्ति धार्मिक है, वही धर्म के मर्म को समझता भी और दूसरे को भी समझा सकता है।*

*जहाँ तक अध्यात्म का प्रश्न है, वह इसी धर्म से सम्बंधित है। मात्र धार्मिक कर्मकाण्ड से सच्चे ज्ञान अर्थात्–आन्तर्ज्ञान की प्राप्ति नहीं हो सकती। धार्मिक कर्मकाण्ड तो अधिकतर भौतिकवादी सीमा के अन्तर्गत आते हैं।

आन्तर्ज्ञान अर्थात् अध्यात्म की प्राप्ति के लिए हमें धार्मिक कर्मकाण्ड के सांसारिक बंधनों से बाहर निकलकर सच्चे ज्ञान की तलाश करनी होती है। जिसे अंतर्ज्ञान कहते हैं, वह तभी प्राप्त होता है जब मस्तिष्क को पूरी तरह एकाग्र कर लिया जाय।*

*ध्यान ही हमें अपने मस्तिष्क को एकाग्र और केंद्रित करने की क्षमता प्रदान करता है। विभिन्न धर्मों में ध्यान के अलग अलग मार्ग बतलाये गए हैं लेकिन सभी का उद्देश्य सामान होता है।

उसमें मन और मस्तिष्क को एक बिन्दु पर केंद्रित किया जाता है और उसके बाद एक स्थिति ऐसी आती है जब मन-मस्तिष्क से वह बिन्दु भी ओझल हो जाता है जिस बिन्दु पर ध्यान केंद्रित किया जाता है। इसी प्रक्रिया को बढ़ाते हुए अभ्यास गहन से गहन किया जाता है। तभी एक ऐसी अवस्था फलीभूत होती है जब मस्तिष्क शून्य में पहुँच जाता है*

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*अर्थात्–विचार, भाव, मन का नामो निशान मिट जाता है। मन गिर जाता, छूट जाता है। मन की एक सीमा होती है। वह आत्मा का साथ वहीँ तक दे सकता है, जितनी उसमें सामर्थ्य है।* *मन के तिरोहित हो जाने पर ही आत्मा के सामर्थ्य का विस्तार होने लगता है और तभी होता है अन्तर्ज्ञान का उदय।

यह ज्ञान अपने-आप में सब कुछ समेट लेता है–व्यक्ति को भी और परमात्मा को भी। यह ज्ञान व्यक्ति की आत्मा से लेकर परमात्मा, अखिल ब्रह्माण्ड, लोक-लोकान्तर के अनन्त अस्तित्व से उसको जोड़कर एक माला की कड़ियों की तरह सब कुछ अपने में पिरो लेता है।

यही वह अनोखा क्षण होता है जब परमात्मा की असीम कृपा की* *आवश्यकता होती है जिसके फलस्वरूप आत्मा का परमात्मा में विलय हो सकता है, निर्वाण या कैवल्य प्राप्त हो सकता। भगवान् का साक्षात्कार हो सकता है।

क्योंकि इस ब्रह्माण्ड में अनेक ऐसे भक्त, साधक, सिद्ध, योगी और तान्त्रिक समर्थ होते हुए भी एक लम्बी पंक्ति में परमात्मा के साक्षात्कार के लिए खड़े इंतज़ार कर रहे हैं कि कब उसकी अहेतु की कृपा उपलब्ध हो और कब उन्हें मोक्ष या निर्वाण उपलब्ध हो।

वह अहेतु की कृपा तभी होगी जब उनके भीतर भौतिकता का एक कण भी शेष नहीं रहेगा, जब सारा का सारा अहम् मिट जायेगा। साधना-काल की गहराइयों में स्वतः मिलने वाली अनेक सिद्धियां भी मिट जाएँगी। सिद्धियां भी* *आत्मा-परमात्मा के मिलन में बाधक बन जाती हैं।

व्यक्ति के पास जब आत्मा के आलावा दूसरा कोई तत्व नहीं बचता, तभी वह पत्मात्मा के साथ साक्षात्कार का अधिकारी बनता है क्योंकि आत्मा के आलावा उसके आगे का कोई तत्व है तो वह है परमात्मा।* *फिर बचती है उस परम पिता की इच्छा। उसकी इच्छा होने पर ही परमात्मा से साक्षात्कार सम्भव है।*
*एक बात और, सही मायने में अध्यात्म के मार्ग को अपनाने वाले व्यक्ति के लिए यह आवश्यक नहीं है वह विज्ञान पर आधारित सांसारिक सुविधाओं का त्याग करदे।

भौतिक संसाधनों का उपयोग ही न करे। परन्तु जो अध्यात्म के मार्ग पर चल जाता है, वह किसी मोह- माया में बिना पड़े सामान्य जीवन व्यतीत करते हुए परमात्मा की कृपा से अन्तर्ज्ञान प्राप्त करने में समर्थ हो जाता है और शेष जीवन वह उसी का प्रसाद समझता है। वह जो कुछ करता है, उसमें वह उसी की इच्छा मानता है।

यही पूर्ण समर्पण है और है–समर्पण का जीवन भी योग हमें ऐसे जीवन को जीने की प्रेरणा देता है जो ईर्ष्या, द्वेष, झूठ, बेईमानी, काम, क्रोध, लोभ, स्वार्थ आदि विकारों से रहित हो। सादगी, सच्चाई से परिपूर्ण विकाररहित जीवन व्यक्ति को सच्चा ज्ञान अर्थात्–अंतर्ज्ञान प्राप्त करने के योग्य बनाता है।*

*डॉ रमेश खन्ना*
*वरिष्ठ पत्रकार*
*हरिद्वार उत्तराखंड*

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