religion,धर्म-कर्म और दर्शन -80
religion and philosophy- 80
🏵️वास्तु क्या है, कहां से आया, कैसे शुरू हुआ वास्तु पूजन 🏵️
🌞वास्तुपुरुष_प्रादुर्भाव एवं पूजन विधि🌞
अनेक पुराणों का अध्ययन करने पर ज्ञात होता है कि ‘वास्तु’ के प्रादुर्भाव की कथा अत्यंत प्राचीन है।
मत्स्य पुराण के अनुसार मत्स्य रूपधारी भगवान विष्णु ने सर्वप्रथम मनु के समक्ष वास्तु शास्त्र को प्रकट किया था, तदनंतर उनके उसी उपदेश को सूत जी ने अन्य ऋषियों के समक्ष प्रकट किया।
इसके अतिरिक्त ‘भृगु’, वशिष्ठ, विश्वकर्मा, मय, नारद, नग्नजित, भगवान शिव, इंद्र, ब्रह्मा, कुमार, नंदीश्वर, शौनक, गर्ग, वासुदेव, अनिरुद्ध, शुक्र तथा बृहस्पति- ये अठारह वास्तु शास्त्र के उपदेष्टा माने गये हैं।
‘मत्स्य पुराण’ के अनुसार प्राचीन काल में भयंकर अंधकासुर वध के समय विकराल रूपधारी भगवान शंकर के ललाट से पृथ्वी पर उनके स्वेद बिंदु गिरे थे, उससे एक भीषण एवं विकराल मुख वाला प्राणी उत्पन हुआ। वह पृथ्वी पर गिरे हुए अंधकों के रक्त का पान करने लगा, रक्त पान करने पर भी जब वह तृप्त न हुआ, तो वह भगवान शंकर के सम्मुख अत्यंत घोर तपस्या में संलग्न हो गया।
जब वह भूख से व्याकुल हुआ तो पुनः त्रिलोकी का भक्षण करने के लिए उद्यत हुआ। तब उसकी तपस्या से संतुष्ट होकर भगवान शंकर उससे बोले- ‘निष्पाप तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम्हारी जो अभिलाषा है, वह वर मांग लो।’’ तब उस प्राणी ने शिवजी से कहा- देवदेवेश मैं तीनों लोकों को ग्रस लेने के लिए समर्थ होना चाहता हूं।
इस पर त्रिशूल धारी ने कहा-’’ ऐसा ही होगा, फिर तो वह प्राणी शिवजी के वरदान स्वरूप अपने विशाल शरीर से स्वर्ग, संपूर्ण भूमंडल और आकाश को अवरुद्ध करता हुआ पृथ्वी पर आ गिरा।
तब भयभीत हुए देवता और ब्रह्मा, शिव, दैत्यों और राक्षसों द्वारा वह स्तंभित कर दिया गया। उसे वहीं पर औंधे मुंह गिराकर सभी देवता उस पर विराजमान हो गये।
इस प्रकार सभी देवताओं के द्वारा उसपर निवास करने के कारण वह पुरुष ‘वासतु= ‘वास्तु’ नाम से विख्यात हुआ।
तब उस दबे हुए प्राणी ने देवताओं से निवेदन किया- ‘‘देवगण आप लोग मुझ पर प्रसन्न हों, आप लोगों द्वारा दबाकर मैं निश्चल बना दिया गया हूं, भला इस प्रकार अवरुद्ध कर दिये जाने पर नीचे मुख किये मैं कब तक और किस तरह स्थित रह सकूंगा।
उसके ऐसा निवेदन करने पर ब्रह्मा आदि देवताओं ने कहा- वास्तु के प्रसंग में तथा वैश्वेदेव के अंत में जो बलि दी जायेगी वह तुम्हारा आहार होगा।
आज से वास्तु शांति के लिए जो- यज्ञ होगा वह भी तुम्हारा आहार होगा, निश्चय ही यज्ञोत्सव में दी गई बलि भी तुम्हें आहार रूप में प्राप्त होगी। गृह निर्माण से पूर्व जो व्यक्ति वास्तु पूजा नहीं करेंगे अथवा उनके द्वारा अज्ञानता से किया गया यज्ञ भी तुम्हें आहार स्वरूप प्राप्त होगा।
ऐसा कहने पर वह (अंधकासुर) वास्तु नामक प्राणी प्रसन्न हो गया। इसी कारण तभी से जीवन में शांति के लिए वास्तु पूजा का आरंभ हुआ।
वास्तु मण्डल का निर्माण एवं वास्तु-पूजन विधि: उतम भूमि के चयन के लिए तथा वास्तु मण्डल के निर्माण के लिए सर्वप्रथम भूमि पर अंकुरों का रोपण कर भूमि की परीक्षा कर लें, तदनंतर उतम भूमि के मध्य में वास्तु मण्डल का निर्माण करें।
वास्तु मण्डल के देवता 45 हैं, उनके नाम इस प्रकार हैं-
1. शिखी 2. पर्जन्य 3. जयंत 4. कुलिशायुध 5. सूर्य 6. सत्य 7. वृष 8. आकश 9. वायु 10. पूषा 11. वितथ 12. गहु 13. यम 14. गध्ंर्व 15. मगृ राज 16. मृग 17. पितृगण 18. दौवारिक 19. सुग्रीव 20. पुष्प दंत 21. वरुण 22. असुर 23. पशु 24. पाश 25. रोग 26. अहि 27. मोक्ष 28. भल्लाट 29. सामे 30. सर्प 31. अदिति 32. दिति 33. अप 34. सावित्र 35. जय 36. रुद्र 37. अर्यमा 38. सविता 39. विवस्वान् 40. बिबुधाधिप 41. मित्र 42. राजपक्ष्मा 43. पृथ्वी धर 44. आपवत्स 45. ब्रह्मा।
इन 45 देवताओं के साथ वास्तु मण्डल के बाहर ईशान कोण में चर की, अग्नि कोण में विदारी, नैत्य कोण में पूतना तथा वायव्य कोण में पाप राक्षसी की स्थापना करनी चाहिए।
मण्डल के पूर्व में स्कंद, दक्षिण में अर्यमा, पश्चिम में जृम्भक तथा उतर में पिलिपिच्छ की स्थापना करनी चाहिए।इस प्रकार वास्तु मण्डल में 53 देवी-देवताओं की स्थापना होती है। इन सभी का विधि से पूजन करना चाहिए।
मंडल के बाहर ही पूर्वादि दस दिशाओं में दस दिक्पाल देवताओं की स्थापना होती है। इन सभी का विधि से पूजन करना चाहिए।
मंडल के बाहर ही पूर्वादि दस दिशाओं में दस दिक्पाल देवताओं- इंद्र, अग्नि, यम, निऋृति, वरुण, वायु, कुबेर, ईशान, ब्रह्मा तथा अनंत की यथास्थान पूजा कर उन्हें नैवेद्य निवेदित करना चाहिए।
वास्तु मंडल की रेखाएं श्वेतवर्ण से तथा मध्य में कमल रक्त वर्ण से निर्मित करना चाहिए। शिखी आदि 45 देवताओं के कोष्ठकों को रक्तवर्ण से अनुरंजित करना चाहिए।
पवित्र स्थान पर लिपी-पुती डेढ़ हाथ के प्रमाण की भूमि पर पूर्व से पश्चिम तथा उतर से दक्षिण दस-दस रेखाएं खींचें। इससे 81 कोष्ठकों के वास्तुपद चक्र का निर्माण होगा।
इसी प्रकार 9-9 रेखाएं खींचने से 64 पदों का वास्तुचक्र बनता है।
वास्तु मण्डल के पूर्व लिखित 45 देवताओं के पूजन के मंत्र इस प्रकार हैं-
ऊँ शिख्यै नमः, ऊँ पर्जन्यै नमः, ऊँ जयंताय नमः।
ऊँ कुलिशयुधाय नमः, ऊँ सूर्याय नमः, ऊँ सत्याय नमः।
ऊँ भृशसे नमः, ऊँ आकाशाय नमः, ऊँ वायवे नमः।
ऊँ पूषाय नमः,ऊँ वितथाय नमः, ऊँ गुहाय नमः।
ऊँ यमाय नमः,ऊँ गन्धर्वाय नमः,ऊँ भृंग राजाय नमः।
ऊँ मृगाय नमः,ऊँ पित्रौ नमः,ऊँ दौवारिकाय नमः।
ऊँ सुग्रीवाय नमः,ऊँ पुष्पदंताय नमः,ऊँ वरुणाय नमः।
ऊँ असुराय नमः,ऊँ शेकाय नमः,ऊँ पापहराय नमः।
ऊँ रोगहराय नमः,ऊँ अदियै नमः,ऊँ मुख्यै नमः।
ऊँ भल्लाराय नमः,ऊँ सोमाय नमः,ऊँ सर्पाय नमः।
ऊँ अदितयै नमः,ऊँ दितै नमः,ऊँ आप्ये नमः।
ऊँ सावित्रे नमः,ऊँ जयाय नमः,ऊँ रुद्राय नमः।
ऊँ अर्यमाय नमः,ऊँ सवितौय नमः,ऊँ विवस्वते नमः।
ऊँ बिबुधाधिपाय नमः,ऊँ मित्राय नमः, ऊँ राजयक्ष्मै नमः।
ऊँ पृथ्वी धराय नमः,ऊँ आपवत्साय नमः,ऊँ ब्रह्माय नमः।
इन मंत्रों द्वारा वास्तु देवताओं का विधिवत पूजन हवन करने के पश्चात् ब्राह्मण को दान दक्षिणा देकर संतुष्ट करना चाहिए।
तदनंतर वास्तु मण्डल, वास्तु कुंड, वास्तु वेदी का निर्माण कर मण्डल के ईशान कोण में कलश स्थापित कर गणेश जी एवं कुंड के मध्य में विष्णु जी, दिक्पाल, ब्रह्मा आदि का विधिवत पूजन करना चाहिए। अंत में वास्तु पुरुष का ध्यान निम्न मंत्र द्वारा करते हुए उन्हें अघ्र्य, पाद्य, आसन, धूप आदि समर्पित करना चाहिए।
वास्तु पुरुष का मंत्र:
वास्तोष्पते प्रति जानीहृस्मान्त्स्वावेशो अनमीवो भवान्।
यत् त्वेमहे प्रति तन्नो जुषस्वं शं नो’’ भव द्विपेद शं चतुषपदे।।
कलश पूजन:
वास्तु पूजन में किसी विद्वान ब्राह्मण द्वारा कलश स्थापना एवं कलश पूजन अवश्य करवाना चाहिए। कलश में जल भरकर नदी संगम की मिट्टी, कुछ वनस्पतियां तथा जौ और तिल छोड़ें। नीम अथवा आम्र पल्लवों से कलश के कंठ का परिवेष्टन करें। उसके ऊपर श्रीफल की स्थापना करें। कलश का स्पर्श करते हुए (मन में ऐसी भावना करें कि उसमें सभी पवित्र तीर्थों का जल है) उसका आवाहन पूजन करें।
अपनी सामथ्र्य के अनुसार वास्तु मंत्र का जाप करें तत्पश्चात् ब्राह्मण और गृहस्थ मिलकर अपने घर में उस जल से अभिषेक करें।
हवन एवं पूर्णाहुति देकर सूर्य देव को भी अघ्र्य प्रदान करें, अंत में ब्राह्मण को सुस्वादु, मीठा, उतम भोजन कराकर, दक्षिणा देकर उनका आशीर्वाद ग्रहण कर घर में प्रवेश करें और स्वयं भी बंधु-बांधवों के साथ भोजन करें।
इस प्रकार जो व्यक्ति वास्तु पूजन कर अपने नवनिर्मित गृह में निवास करता है उसे अमरत्व प्राप्त होता है तथा उसके गृहस्थ एवं पारिवारिक जीवन में रोग, कष्ट, भय, बाधा, असफलता इत्यादि का प्रवेश नहीं होता है तथा ऐसे गृह में निवास करने वाले प्राणी प्राकृतिक एवं दैवीय आपदाओं तथा उपद्रवों से सदा बचे रहते हैं और ‘वास्तु पुरुष’ एवं वास्तु देवताओं की कृपा से उनका सदैव कल्याण ही होता है।
2-वास्तुदेव की तीन विशेषताएं होती हैं : –
चर वास्तु :
इसमें वास्तु पुरुष की नजर या रुख 1.भाद्रपद ( अगस्त, सितम्बर ),
आश्विन तथा कार्तिक ( अक्टूबर , नवम्बर ) महीनों के अवधि में वास्तु पुरुष की नजर या रुख दक्षिण की ओर होता है।
2.मार्गशीर्ष (नवम्बर- दिसंबर ), पौष ( दिसंबर – जनवरी ), और माघ (जनवरी-फरवरी ) महीनों में वास्तु पुरुष की नजर या रुख पश्चिम की ओर होता है।
3.फाल्गुन (फरवरी – मार्च ), चैत्र (मार्च – अप्रैल ), और वैशाख (अप्रैल – मई ) महीनों में वास्तु पुरुष की नजर या रुख उत्तर की ओर होता है।
4.ज्येष्ठ (मई – जून ), आषाढ़ (जून – जुलाई ), तथा श्रावण (जुलाई – अगस्त ) महीनों की अवधि में वास्तु पुरुष की नजर या रुख पूर्व की ओर होता है।
निर्माण कार्य का आरम्भ या शिलान्यास और मुख्य द्वार की स्थापना ऐसे स्थान पर होनी चाहिए जो वास्तुपुरुष की दृष्टी या नजर की ओर हो , ताकि मनुष्य उस मकान में शान्ति और सुख से रह सके।
स्थिर वास्तु :
वास्तु पुरुष का
सिर सदैव :- उत्तर-पूर्व की ओर रहता है
पैर :- दक्षिण – पश्चिम की ओर रहता है
दाहिना हाथ :- उत्तर-पश्चिम की ओर रहता है
बांया हाथ :- दक्षिण – पूर्व की ओर रहता है रहता है
इस बात को ध्यान में रखते हुए मकान का डिजाइन एवं प्लान बनाना चाहिए।
3-वास्तु पुरुष की नजर या नित्य वास्तु :
प्रत्येक दिन
· सुबह प्रथम तीन घंटे – वास्तु पुरुष की दृष्टी अथवा नजर सुबह प्रथम तीन घंटे पूर्व की ओर रहती है।
· इसके पश्चात तीन घंटे दक्षिण की ओर रहती है।
· तथा उसके बाद तीन घंटे पश्चिम की ओर रहती है।
· तथा अंतिम तीन घंटे उत्तर की ओर रहती है।
भवन का निर्माण कार्य इसी प्रकार समयानुसार करना चाहिए।
वास्तु पुरुष की तीन अवसरों पर पूजा अर्चना करनी चाहिये-
· निर्माण कार्य में शिलान्यास करते समय।
· दूसरी बार मुख्य द्ववार लगाते समय।
· तीसरी बार गृह प्रवेश के समय पूजा करनी चाहिये।
· गृह प्रवेश उस समय होना चाहिये जब वास्तुपुरुष की नजर उस ओर हो ये शुभ रहता है।
4-वास्तु में दिशाओं का महत्व एवं क्षेत्र :-
सूर्य जिस दिशामें उदय होता है उस दिशा को पूर्व दिशा कहते हैं एवं जिस दिशा में सूर्य अस्त होता है उस दिशा को पश्चिम दिशा कहते हैं , जब कोई पूर्व दिशा की ओर मुहँ करके खड़ा होता है , उसके बांयी ओर उत्तर दिशा एवं दांयी ओर दक्षिण दिशा होती है।
वह कोण जहाँ दोनों दिशाएँ मिलती हैं वह स्थान अधिक महत्वपूर्ण होता है क्योंकि वह स्थान दोनों दिशाओं से आने वाली शक्तियों को मिलाता है। उत्तर – पूर्वी कोने को ईशान ,
दक्षिण- पूर्वी कोने को आग्नेय ,
दक्षिण – पश्चिम कोने को नैरत्य ,
और उत्तर – पश्चिम कोने को वायव्य कहते हैं।
दिशाओं का महत्व निम्न प्रकार से है :-
· पूर्व – पित्रस्थान , इस दिशा में कोई कोई रोक या रुकावट नहीं होनी चाहिए , क्योंकि यह नर- शिशुओं व् संतति का स्रोत है।
· दक्षिण – पूर्व (आग्नेय) : यह स्वास्थ्य का स्रोत है , यहाँ अग्नि का वास रसोई आदि का कार्य करना चाहिए।
· दक्षिण – सुख , सम्पन्नता और फसलों का स्रोत है।
· दक्षिण – पश्चिम ( नैरत्य) : व्यवहार और चरित्र का स्रोत है तथा दीर्घ जीवन एवं मृत्यु का कारण।
· पश्चिम- नाम , यश, और सम्पन्नता का स्त्रोत है।
· उत्तर – पश्चिम (वायव्य) :व्यापार , मित्रता, और शत्रुता में परिवर्तन का स्रोत।
· उत्तर – माँ का स्थान,यह कन्या शिशुओं का स्रोत है , अतः इसमें कोई रूकावट नहीं होनी चाहिये।
· उत्तर – पूर्व (ईशान) : स्वास्थ्य , संपत्ति , नर- शिशुओं , और सम्पन्नता का स्रोत है ।
5- उपयुक्त भूखंड –
पूर्व मुखी भूखंड – शिक्षा एवं पत्रकारिता तथा फिलोस्फर जैसे लोगों के लिए उपयुक्त रहते हैं तथा हवा व् प्रकाश के लिए भी अच्छे रहते हैं।
उत्तर मुखी भूखंड – सरकारी कर्मचारी , प्रशासन से सम्बंधित कार्यों व् सेना के लोगों के लिए ज्यादा अच्छे रहते हैं।
दक्षिण मुखी भूखंड – ब्यापारिक प्रतिष्ठानों एवं व्यापार के कार्यों तथा धन के लिए अच्छे रहते हैं।
पश्चिम मुखी भूखंड सामाजिक कार्यकर्ताओं के लिए ज्यादा अच्छे रहते हैं ।
शिलान्यास करने व् मुख्य द्वार लगाने का शुभ समय :-
· वैशाख शुक्ल पक्ष (अप्रैल – मई ),
· श्रावण मास (जुलाई – अगस्त ),
· मार्गशीर्ष मास (नवम्बर – दिसंबर),
· पौष मास (दिसंबर – जनवरी )
· और फाल्गुन मास (फरवरी – मार्च) महीने शुभ होते हैं।
व् अन्य महीने अशुभ माने जाते हैं।
उपरोक्त महीनों के शुक्ल पक्ष की तिथि द्वितीया , पंचमी , सप्तमी, नवमी, एकादशी , त्रयोदशी तिथियों में वार , सोमवार, बुधवार, गुरूवार, शुक्रवार, आदि का दिन होना शुभ रहता है।तथा सूर्य की वृषभ राशी , वृश्चिक राशि , और कुम्भ राशि में सूर्य अनुकूल रहता है।
डॉक्टर रमेश खन्ना
वरिष्ठ पत्रकार
हरिद्वार