राजा प्रताप सिंह को प्रजा सहित ईसाई बनाने आया था पादरी जॉनसन,क्या कहता है इतिहास ?

Pastor Johnson had come to make raja pratap singh a Christian along with his subjects?

जाॅनसन से शास्त्रार्थ की शर्त हारे थे पंडित?

लेख:- हेमंत आत्रेय
रिटायर्ड अधिकारी गुरुकुल कांगड़ी हरिद्वार

पौराणिक हिन्दू पण्डित बहुल क्षेत्र
जम्मू कश्मीर में आर्य समाज और उसकी गतिविधियों पर प्रतिबंध था।
प्रतिबंध सन् 1892 तक जारी रहा।

प्रसंग ईसवी सन् १९५६ से सम्बन्धित है, जो इस प्रकार है कि आर्य समाज के भजनोपदेशक व प्रचारक ओमप्रकाश वर्मा जी उस वर्ष आर्यसमाज हजूरी बाग, श्रीनगर जम्मू-कश्मीर में वेद प्रचार-सप्ताह के सम्बन्ध में गये हुए थे। इस कार्यक्रम में उनके साथ अन्य चार आर्य समाजी भी पधारे थे।
एक दिन आर्यसमाज मन्दिर में ओमप्रकाश वर्मा जी के कार्यक्रम के समय पर ब्रिग्रेडियर राजेन्द्र सिंह भी श्रोताओं में विराजमान थे। ओमप्रकाश वर्मा जी के भजन, गीत तथा उपदेशों को सुनकर बिग्रेडियर बोले कि कल कृष्ण जन्माष्टमी है। यहां के सैनिक मन्दिर में यह त्यौहार मनाया जायेगा। क्या कल वहां यही भजन, गीत व उपदेश उनके सैनिकों को भी आप सायं सात बजे सुनायेंगे?
वर्मा जी ने उनके प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। अगले दिन सैनिक मंदिर में वर्मा जी का आगमन हुआ। यह मन्दिर डा. कर्णसिंह (राजा हरिसिंह के पुत्र, जो अब प्रदेश के राज्यपाल थे) की कोठी के पास ही था। वर्मा जी ने वहां योगेश्वर श्री कृष्ण जी के विषय में गीत, भजन व विचार प्रस्तुत किये। वर्मा जी के कार्यक्रम को सुनकर सैनिकों व उनके उच्चाधिकारियों में अद्भुत उत्साह का संचार हुआ। वापसी के लिये वर्मा जी जब ब्रिगेडियर साहब की गाड़ी के भीतर बैठे ही थे कि दो व्यक्ति सामने की सड़क से उनके पास आए तथा बोले – ‘क्या पं. ओम प्रकाश वर्मा आप ही हैं?’ वर्मा जी ने “हा” में उत्तर दिया।
उन दो व्यक्तियों में से एक व्यक्ति कश्मीर के राज्यपाल डा. कर्णसिंह के मामा ओंकार सिंह थे। वर्मा जी ने उनसे पूछा – ‘मेरे योग्य सेवा बताइए’।

उन्होंने कहा कि यहां आपने जो उपदेश सुनाए हैं, हमने सड़क पार उस कोठी में बैठकर पूरी तरह सुने हैं। क्या आप यही विचार वहां आकर भी सुनाएंगे?

वर्मा जी ने उनका निमंत्रण स्वीकार्य करते हुए कल का दिन निश्चित किया और आर्य समाज मंदिर में लौट आए।
आर्यसमाज मन्दिर लौटकर वर्मा जी ने पूरा वृतान्त आर्यसमाज के अपने साथी विद्वानों को सुनाया जो वहां उनके साथ पधारे हुए थे। वह सभी विद्वान वर्मा जी की इन बातों को सुन कर बहुत प्रसन्न हुए। उन विद्वानों ने कहा कि ऋषि दयानन्द सरस्वती के तीन ग्रन्थ ‘सत्यार्थप्रकाश’, ‘संस्कारविधि’ तथा ‘ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका’ कर्णसिंह को अवश्य भेंट कीजिएगा।

महाराजा हरिसिंह के पुत्र कर्ण सिंह अपनी माताजी के नाम पर बने ‘तारादेवी निकेतन’ में तब सपरिवार रहते थे। उन दिनों कर्ण सिंह जम्मू व कश्मीर के राज्यपाल थे। वह शासकीय बंगले में न रहकर ‘तारादेवी निकेतन’ में ही रहते थे।

अगले दिन निर्धारित समय पर वर्मा जी उक्त स्थान पर पहुंच गए। वहां एक श्वेत वस्त्रधारी महानुभाव को भी उन्होंने देखा। (वह जनरल करिअप्पा थे)
उन्होंने वर्मा जी से पूछा आपका परिचय?
वर्मा जी ने कहा कि मैं आर्यसमाज का एक उपदेशक व प्रचारक ओमप्रकाश वर्मा हूं।
उन्होंने पूछा कि आजकल आर्यसमाज क्या कर रहा है? वर्मा जी ने बताया कि आजकल आर्यसमाज हिन्दी रक्षा आन्दोलन चलाने की तैयारी में है।
उन दोनों कि वार्ता में कर्णसिंह ने हस्तक्षेप करते हुए कहा कि – आजकल आर्यसमाज की गतिविधियां तो हम पढ़ते रहते हैं, परन्तु यह बताइए कि आर्यसमाज को स्थापित हुये लगभग अस्सी वर्ष बीत गये हैं, इन अस्सी वर्षों में आर्यसमाज ने क्या किया है?….

“आप जैसे राजाओं को ईसाई बनने से बचाया है”
(वर्मा जी ने बिना समय गवाए सहज और निडर भाव से उत्तर दिया)

कर्णसिंह जी बोले क्यों गलत बात बोलते हो, हमें आर्यसमाज ने ईसाई होने से बचाया है? हम यह कदापि नहीं मान सकते।
आगे पं. ओमप्रकाश वर्मा जी ने कहा कि आपको नहीं, आपके दादा महाराज प्रताप सिंह को ईसाई बनने से बचाया है। यदि वे तब ईसाई बन गये होते तो आज आप भी अवश्य ईसाई ही होते।
कर्ण सिंह जी ने पूछा कि आप कैसे कहते हैं कि मेरे दादा जी को ईसाई बनने से आर्यसमाज ने बचाया?

वर्मा जी ने कहा, सुनिए, डा. साहब! आपके दादा प्रताप सिंह के शासनकाल में जम्मू-कश्मीर में हिन्दुओं के पौराणिक पंडितों के दबाव के कारण आर्यसमाज पर पूर्ण प्रतिबन्ध लगा हुआ था।
सन् 1892 में राजस्थान के आर्य समाज के विद्वान गणपति शर्मा लाहौर स्यालकोट के मार्ग से जम्मू पधारे और फिर बाद में श्रीनगर से 23 किमी. दूर स्थित नीचे एक हाऊस बोट में वह रहने लगे।
उन्हीं दिनों में एक ईसाई पादरी जॉनसन श्रीनगर में पहुंचा। उसने महाराजा प्रताप सिंह से उनके हिंदू पण्डितों से शास्त्रार्थ कराने को कहा। पादरी जॉनसन ने कहा कि यदि मै शास्त्रार्थ में पराजित हो गया तो आपका धर्म स्वीकार करूंगा, किन्तु यदि आपके हिन्दू पण्डित हार गये तो आपको ईसाई बनना होगा।
महाराजा प्रताप सिंह ने उसका कहना स्वीकार्य कर लिया।
निश्चित तिथि पर राज-दरबार में शास्त्रार्थ हुआ। विषय था ‘मूर्तिपूजा’। पादरी जॉनसन द्वारा मूर्तिपूजा पर किए गए अक्षेपो का हिंदुओ के पौराणिक पंडितो के पास कोई उत्तर नहीं था। कोई भी पौराणिक पण्डित इसे सिद्ध न कर सका।
पूर्व निर्धारित शर्त अनुसार महाराजा प्रताप सिंह हिंदू पण्डितों का पक्ष कमजोर पड़ता देखकर बपतिस्मा पढ़कर ईसाई बनने को तैयार हो रहे थे। किन्तु, तभी आर्य समाज के विद्वान पं. गणपति शर्मा, (जो बहुत देर से सभा में शांत बैठे हुए थे) अब खड़े हो गये। खड़े होकर गणपति शर्मा जी ने महाराज प्रतापसिंह को सम्बोधित करते हुए कहा – महाराज! यदि आप मुझे आज्ञा दें, तो मैं जॉनसन से शास्त्रार्थ करूंगा।
चूंकि महाराज की पराजय हो रही थी, अतः उन्होंने तुरन्त आज्ञा दे दी।
परन्तु पराजित हिन्दू पण्डितों व पादरी जॉनसन ने एक स्वर में यह कहकर गणपति शर्मा जी का शास्त्रार्थ हेतु विरोध किया कि यह तो एक ‘आर्यसमाजी’ है, अतः ये शास्त्रार्थ नहीं कर सकता। महाराज ने यह सोचकर कि ये आर्य समाजी कदाचित इस जॉनसन को तो ठीक कर ही देगा इसलिए महाराज ने पण्डितों व जॉनसन की आपत्तियो को निरस्त कर दिया और गणपति शर्मा जी को जॉनसन से शास्त्रार्थ करने को स्वीकृति देते हुए उन्हें आमन्त्रित किया।
पं. गणपति जी बोले – पादरी जी आप प्रश्न करें, मैं उत्तर देता हूं।
जॉनसन बोले, आप हमसे शास्त्रार्थ करिए।

पंण्डित गणपति शर्मा ने पादरी से कहा कि पहले यह बताएं कि शास्त्रार्थ शब्द का अर्थ क्या है? क्या शास्त्र से आपका आशय छः शास्त्रों – योग, सांख्य, न्याय, वैशेषिक, वेदान्त तथा मीमांसा से है? यदि इनसे ही आपका आशय है तो बताइये कि इन दर्शन शास्त्रों में से किस का अर्थ करने आप यहां आए हैं? क्या आपको ज्ञान है कि अर्थ शब्द भी अनेकार्थक है। अर्थ का एक अर्थ ‘धन’ होता है। दूसरा अर्थ प्रयोजन होता है जबकि तीसरा अर्थ द्रव्य, गुण व कर्म (वैशेषिक दर्शनानुसार) भी है। आप कौन-सा अर्थ समझने-समझाने आये हैं? शास्त्र भी केवल छः नहीं हैं। धर्मशास्त्र, अर्थशास्त्र, कामशास्त्र व नीतिशास्त्र आदि कई शास्त्र विषयों की दृष्टि से भी हैं।
अतः अब आप ‘शास्त्रार्थ’ शब्द का अर्थ समझायेंगे तो हम अपनी बात आगे बढ़ाएंगे।

जॉनसन ने लड़खड़ाते हुए शब्दो में उत्तर दिया कि हम इसका उत्तर देने में असमर्थ है। तब पं. जी ने कहा, महाराज! जॉनसन तो उत्तर नहीं दे रहा है। इस पर प्रतापसिंह जी बोले, यह तो आपके पहले ही प्रश्न का उत्तर नहीं दे पा रहा है व मौन खड़ा हुआ है, अत: अब ये पादरी अपने घर को चले जाएं।
‌‌ ‌‌आगे महाराज ने कहा कि प. गणपति जी! आपने केवल मुझे ही नहीं, बल्कि पूरे जम्मू-कश्मीर की प्रतिष्ठा को बचाया है। हम आप पर प्रसन्न हैं। बताईये, आपको क्या भेंट दे?
गणपति जी ने उत्तर दिया – महाराज! मुझे अपने लिये कुछ भी नहीं चाहिये। देना ही है तो दो काम कर दीजिए। प्रथम तो यह कि जम्मू कश्मीर में आर्यसमाज पर लगा प्रतिबन्ध हटा दीजिए तथा दूसरा काम यह करें कि यहां पर आर्यसमाज की स्थापना भी हो जाये।
‌ गणपति वर्मा जी ने यह घटना राज्यपाल कर्णसिंह को पूरी सुनाई और उन्हें यह भी बताया कि श्रीनगर में हजूरी बाग का आर्यसमाज मन्दिर आपके दादा प्रतापसिंह जी द्वारा दी गई भूमि पर ही स्थापित हुआ था। इस शास्त्रार्थ के बाद प्रताप सिंह जी ने पौराणिक हिंदू पंडितो के दबाव के चलते अपने पिता महाराजा रणवीर सिंह द्वारा आर्यसमाज पर लगाए गए प्रतिबन्धों को तुरन्त हटा दिया था। ओमप्रकाश वर्मा जी की बातें सुनकर कर्णसिंह मौन हो गये। वर्मा जी ने उन्हें यह भी बताया कि यह घटना इतिहासकार पण्डित इन्द्र विद्यावाचस्पति जी (स्वामी श्रद्धानंद के पुत्र) की इतिहास की पुस्तक में वर्णित है।
इसके बाद कर्णसिंह के घर पर वर्मा जी के भजन, गीत व उपदेश हुये तथा कार्यक्रम के पश्चात उनकी गाड़ी उन्हें हजूरी बाग आर्यसमाज मन्दिर, श्रीनगर में वापिस छोड़ गई। वर्मा जी ने आर्यसमाज में उनके साथ पधारे अन्य चारों उपदेशकों को उक्त पूरी घटना विस्तारपूर्वक सुनाई तो वे सभी भी बहुत प्रसन्न हुये और उन्होंने ओमप्रकाश वर्मा जी की खूब प्रशंसा की।

 

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